________________
Enो भूख और ममापरले पाले में नित्रता में करें।
कई प्रोत्म कल्याण का मार्ग छोड़कर अज्ञानी संसारी मनुष्यों पर अपने ढोंग और दम्भ द्वारा साधुपन की छाप मोहर लगाने का यत्न करते हैं ।
ऐसा होने से योगाभ्यास करने की रुचि कैसे हो सकती है ? उस पर श्रद्धा कैसे हो? क्योंकि यह कार्य तो निर्लोभी और आत्मज्ञानी का है । मुनि का यही धर्म है यही कर्तव्य है। योग की साधना और ध्यान के अभ्यास द्वारा ही सच्चा आत्म कल्याण हो सकता है । ऐसा कहने में ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं है।
प्राणायाम योग की दस भूमिकाएं हैं । इनमें प्रथम भूमिका स्वरोदय ज्ञान की है । इस ज्ञान के अभ्यास द्वारा बड़े बड़े गुप्त भेद भी मानव सुगमतापूर्वक जान सकता है। तथा बहुत प्रकार की व्याधियों का निवारण भी कर सकता है । स्वरोदय शब्द का अर्थ नाक से श्वास का निकलना ऐसा होता है। इसमें सर्व प्रथम श्वास की पहचान की जाती है। नाक पर हाथ के रखते ही नाड़ी का ज्ञान होने से इसका अभ्यासी गुप्त बातों का रहस्य चित्रवत जान सकता है। इसके ज्ञान से अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं, परन्तु यह बात निश्चित है कि इस विद्या का अभ्यास योगाभ्यासी गुरु के सहयोग बिना उत्तम प्रकार से नहीं किया जा सकता ।क्योंकि पहले तो यह विषय कठिन है दूसरी बात यह है कि इसमें अनेक साधनों की आवश्यकता है । इस विषय पर जो ग्रंथ विद्यमान हैं उनमें इस कठिन विषय को अति संक्षेप से वर्णन किया है । इसलिये साधारण मनुष्य इस विषय को समझ नहीं सकते । आजकल इस विद्या को अच्छी तरह से जानने वाले और दूसरों को अच्छी तरह से सिखा सकें ऐसे योगी पुरुष देखने में नहीं आते ।
वर्तमान काल में कई व्यक्तियों ने बिना योगी गुरु के सानिध्य के इस विद्या का अभ्यास करके लाभ के बदले हानि उठाई है । इसीलिये चिदानन्द जी ने अपनी इस कृति में स्थान-स्थान पर इस बात पर जोर दिया है कि प्राणायाम-स्वरोदय का अभ्यास सम्यग्दृष्टि ज्ञानी योगी गुरु के पास ही करना चाहिए।
आत्म कल्याणार्थी तथा योग साधना वालों के लिये यह सारा ग्रन्थ ही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org