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________________ AAR बहुत अधिक मत बोलो पर कुछ सत्कार्य अवश्य करते रहो। किब निकलते समय जो विषयानन्द होता है, उस विषयानन्द में जगत् फंस रहा है और जरा-मरण करता है, और फिर वह वीर्य भग में पड़ा हुआ पीछे खींचकर ले जावे तो वह वीर्य दही के दृष्टांत के अनुसार कदापि एकरस न होगा। इसलिए वर्तमान काल में कितने ही लोग इन ग्रन्थों के अनुसार वज्रोली में प्रवृत्त होते हैं और अपने दिल में विचारते हैं कि इस क्रिया के करने से हम योगवेत्ता होकर योगीन्द्र वन जायेंगे । किन्तु वह तो होता नहीं है, उलटे वे लोग भ्रष्ट और पतित हो जाते हैं। इसलिए इन ग्रंथों की रीति आत्मार्थियों के वास्ते उपयुक्त हमारे समझ में नहीं आई, इस कारण से हमने विशेष खोलकर लिखा है, कितने ही वेषधारी इस क्रिया को करके साधुत्व से भ्रष्ट हो गए हैं। भाई, इसकी प्रवृत्ति अन्य मत में ही है जैनमत के साधु भ्रष्ट न हुए, क्योंकि उन्होंने यह क्रिया को अपनाया नहीं है। अन्य मत के साधु काम विकार जन्य प्रवृत्ति कर आपस में बड़ाई करते हैं इसलिए प्रसंग से हमने भी इतनी बात लिख दी है। __वज्रोली की शुद्ध रीति और प्रयोजन अब हम वज्रोली का प्रयोजन और रीति गुरु की कृपा से जो पाई है वह बतलाते हैं, आत्मार्थी पाठकगणों को सुनाते हैं, कुछ अनुभव भी दिखाते हैं, वीर्य को बचाते हैं, स्त्री का बिलकुल त्याग कराते हैं, अपने स्वरूप को मिलाते हैं। जो बुद्धि पूर्वक विवेक सहित ग्रहण कर श्रद्धा-सहित परिश्रम करेगा उसे स्वरोदय-साधन में सहायता मिलेगी और इससे कुछ विशेष सिद्धि नहीं है। हां विषयी पुरुषों के वास्ते स्त्रियों को प्रसन्न करना, और आप आनन्द लूटना होता है, परन्तु यह काम योगियों का नहीं । इन्द्रिय में गज डालकर छिद्र बढ़ाना भी निष्प्रयोजन है । क्योंकि लघुनीति साफ मार्ग के बिना कदापि न निकलेगी और फूंकनी लगाकर उसमें वायु को फूंक से भरना भी निष्प्रयोजन है। यद्यपि लघुनीति होना, अथवा विषय करने से भी वीर्य का निकलना, इन दोनों बातों का अनुभव जगत् को हो रहा है। परन्तु ख्याल न रखने से उसका रहस्य समझते नहीं हैं। विवेक के साथ विचार करें तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यही दिखाते हैं कि जिस समय पुरुष अठारह अथवा बीस वर्ष की आयु में हो, और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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