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________________ स्वयं पर भी कभी क्रोध न करो। [२१५ के प्रारम्भ से ग्यारहवे दिन अनुभव का आनन्द पाया, उसी के किठिन स्वाद से इतना लेख लिखाया है। ऊपर की बात से अब हमको यह विचार करना चाहिए कि जब योनि में लिंग देकर क्रिया करना, और वीयं न पड़ने देना, अथवा पड़े हुए को ऊपर चढ़ाते जाना ही यदि 'हठप्रदीपिका' आदि के मत से योगीन्द्रपन हो तो सब कामी मनुष्य भी योगवेत्ता हो जायेंगे। दूसरी बात यह है कि जो चीज पहले साबुत बनी हुई है, उस चीज में से थोड़ी निकाल कर फिर उसमें मिलावे तो मिलाने से जो घाट पहले था वह घाट न रहेगा। जैसे दही किसी वरतन में जमा हुआ है, उसमें से कुछ निकाल कर फिर पीछे से उसमें मिलावे तो पहले जैसा यथावत् स्वरूप था वैसा कदापि न होगा। यही हाल वीयं का भी है। इस लिए पहले उस वीयं को कदापि न निकालना चाहिए। तीसरी बात यह भी है कि योनि में लिंग देने से यदि योगबेत्ता होता हो, तो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, समाधि, आदि साधन व्यर्थ हो जायंगे । चौथा कारण यह है कि गोरक्ष पद्धति के सातवें और हठप्रदीपिका के ८३ वें श्लोक में लिखा है, कि चिन्न के स्थिर होने से वीर्य स्थिर होता है । इससे प्रात्म-अनुभवी-अध्यात्म इसी बात को अंगीकार करेंगे कि चित्त को स्थिर करने से वीर्य आप ही स्थिर हो जाएगा। पांचवां कथन है कि योनि में लिंग डाल कर क्रिया करना और वीर्य को न गिरने देना, यह बात शौकीन जार पुरुष भी कर सकते हैं । अथवा दवाई आदि से भी हो सकता है। परन्तु ऐसी क्रिया (वज्रोली) से कदापि चित्त स्थिर न होगा। उलटी विशेष रूप से चित्त की चंचलता हो जाएगी, और चंचलता होने से व्यभिचारादि विशेष करने लगेगा । क्योंकि देखो अग्नि में ज्यों-ज्यों घृत काष्ठादि पड़ेगा, त्यों-त्यों अग्नि विशेष करके प्रज्वलित होगी। इस रीति से जो योनि में लिंग देकर क्रिया करेगा, उसका चित्त विषयासक्त होगा ही और जिस समय वह वीर्य निकलता है सो रुकना भी कठिन है ; क्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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