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fier मुनि अपनी देह पर भी ममत्व नहीं रखते ।
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अपने उपाश्रय को लौटी। यह जानकर श्रीभद्रबाहु स्वामी ने स्थूलभाभी अयोग्य जानकर आगे पढ़ाना बन्द कर दिया । धीरे-धीरे आगे जाकर मनुष्यों की स्मरण शक्ति भी कम होती गई ।
अनेक विद्याओं के साथ-साथ धीरे-धीरे योगाभ्यास की रीति भी लुप्त होती गई। परन्तु जो कुछ बची है वह जीर्णवस्त्र छिद्रसन्धान न्याय से चली श्राती है; वह भी कदाग्रह से दिन प्रतिदिन दबी जाती है, सर्वथा लुप्त नहीं हुई क्योंकि श्रीहरिभद्रसूरिजी ने योगविंशतिका तथा योगसमुच्चयादि ग्रन्थों में और श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने भी योगशास्त्र में वर्णन किया है और रत्नप्रभसूरि आदि अनेक आचार्य समाधि की महिमा कर गये हैं और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुसार समाधि आदि में परिश्रम भी किया होगा और श्री आनन्दघन जैसे तो सत्पुरुष थोड़े से काल के पहले हुए हैं सो इन्होंने तो हठयोगकी बहुत सी बातें जताई हैं । मुद्रा, धारणा नादादि स्तवनों में गाये हैं, अजपाजाप जपने के वास्ते भी इशारे करके बहुत-सी महिमा बताई हैं और मन ठहराते गए हैं ।
ऐसे ही मैंने भी स्वरोदयादि ग्रंथ में इशारा जताया है नवपदजी का ध्यान करना भी बताया है, समाधि का भेद भी लिखा है, इन पांच तत्त्वों पर खुलासा कर दिखाया है । इसलिये मुझे पाठकगण को इतना हाल लिखकर समझाना पड़ा है कि जिससे कोई सन्देह न करे, और मुझे कुछ इसमें ग्रह भी नहीं हैं, जैसा गुरु ने मुझे बताया, उसमें से किंचत् मैंने बुद्धि अनुसार लिखा है । इस बात को समझकर जैनधर्म की रीति से किंचित् तत्त्वों का भेद चित्त में लाओ, गुरु के पास से विशेष भेद पाओ, श्रात्मार्थी बनना चाहो तो योगाभ्यास में चित्त लगाओ, आत्मदर्शी बनो, जिससे मोक्षपद पाओ, ऊपर लिखे तत्त्वों का भेद सुन अभ्यास को बढ़ाओ ।
पांचों तत्त्वों की साधन रोति
इन पांच तत्त्वों के साधने वाले को चाहिए कि पहले पांच गोलियां अलगअलग रंग की बनावें, और एक गोली अनेक वर्ण की बनावे और इन छहों गोलियों को पास रखे । जब बुद्धिपूर्वक तत्त्व देखने का विचार हो, तब पास
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