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________________ MAIN १४] लोभका प्रसंग मानेपर व्यक्ति असत्यका आश्रय लेता है। अष्ट प्रवचन माता (पांच समिति, तीन गुप्ति) को आप यथावत् पालते हैं, और दूसरों से पलवाते हैं। तिरछी गति इसकी इसलिए है कि द्वादशांगी का स्वाध्याय अनुलोम प्रतिलोम (उलटा सीधा) कई प्रकार से करते हैं, और जिसका अष्ट-प्रहर विचार रूप भ्रमण कई तरह का है । यदि जो कोई वक्रता से पूछे तो उसी रीति से समझाना और धर्म में लाना, इस लिए तिरछी गति कही है । अब साधु पद का वर्णन करते है। ५-साधु-तत्त्व उत्सर्ग मार्ग से साधुपन में से बाहिर न हो, इसलिये बाहिर निकलना नहीं कहा। काला रंग इसलिये कहा है कि उस रंग के ऊपर कोई दूसरा रंग न ही चढ़ता। ऐसे ही साधु के साधन में दूसरा रंग न हो, और बहुत रंग इस वास्ते कहते हैं कि, साधु गुरु की चरण सेवा से विद्याध्ययन करता है और जब विद्या में निपुण हो तब दूसरों को अध्ययन करावे, जब अध्ययन कराने लगा तब उपाध्याय पद की भी प्राप्ति होती है। फिर उपाध्यय पद में निपुण जानकर योग्यता देख गुरु आचार्यपद देते हैं, इस प्रकार बढ़ता हुआ अरिहन्तपद को पाकर सिद्धपद को प्राप्त होता है, इसलि: बहुत रंग इसके विषय में कहे गये हैं। आकाश इसको इसलिये कहते हैं कि जैसे आकाश में सर्व द्रव्य रहने वाले ही हैं, वैसे साधुपद में सर्व द्रव्य रहने वाले हैं । इसी रीति से सर्व-व्यापक जानों । कड़वा स्वाद इसलिये है कि जैसे कड़वी चीज से चित्त बिगड़ता है परन्तु कड़वी चीज़ है गुणदायक, वैसे ही साधु को अनेक परिषहादि का सहन करना भी होता है, इसलिये वह कटुक प्रतीत होता है, परन्तु है सुखकारी। इस रीति से इन पांच तत्त्वों का किंचित् भेद सुनाया इसको गुरुगम से मैंने पाया है, परन्तु शास्त्रों में लेख नहीं आया है, इस रीति को सुनकर कितने ही लोगों के चित्त में कुविकल्प समाया, परन्तु इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है इसलिये पंचमेष्ठि का मैंने ध्यान बताया है। . अब इस जगह शंका उत्पन्न होती है कि शास्त्रों में तो यह बात किसी के देखने में नहीं आई, जो कहीं होती तो कोई प्राचार्य किसी जगह लिखते इस शंका का समाधान ऐसा है कि मैंने जो इस विषय में लिखा है सो सर्वज्ञ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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