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________________ विग्रह बढ़ाने वाली बात नहीं करनी चाहिए। हा कार अपना निर्वाह कर ले, अथवा आधे से भी थोड़ा आहार करे। योगी के लिये स्थान योगी के लिये स्थान कैसा होना चाहिये वह दिखाते हैं । एकान्त अर्थात् बस्ती से बाहर हो, और उस मकान में स्त्री, नपुंसक, तिर्यञ्च आदि का आना जाना न होना चाहिये । इसी वास्ते जैनधर्म में ब्रह्मचारी को नव वाडों से ब्रह्मचर्य पालन करना कहा है। उन नव वाडों का वर्णन शास्त्रों में है, ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से नहीं लिखते । अन्य मत में कई एक प्रकार मठादि के बताये हैं वे भी ग्रन्थ बढ़ने के भय से नहीं लिखते। परन्तु उस एकान्त स्थान में चूना-पत्थर आदि का मकान न हो। वह दूसरी रीति से योग साधनेवाले की पीठिका कही गई है। प्रासन प्रतिष्ठा योग साधने वाले को प्रथम प्रासन दृढ़ करना चाहिये । आसनों की संख्या चौरासी लक्ष है जिसमें चौरासी आसन प्रसिद्ध हैं। उनमें भी जो इस योगसाधना में बहुत उपयोगी हैं उन्हीं आसनों के कुछ गुणादि वर्णन करते हैं। स्वस्तिक-प्रासन यह समस्त आसनों में सुगम है, और मंगल रूप भी है, इसीलिये इसको प्रथम कहा है । सुगमता इसकी इस लिये है कि जंघों के मध्य में दोनों पावों के तलवों को करके और देह सरल करके बैठना, उसे स्वस्तिकासन कहते हैं। इसका नाम स्वस्तिक क्यों दिया यह दिखलाते हैं—स्वस्ति नाम है कल्याण का, जो भव्य जीव आत्मार्थी आत्मसाधन और मोक्ष जाने की चाहना करे उसे कोई तरह का विघ्न न हो, क्योंकि सत्कर्म करने में प्रायः विघ्न आया ही करते हैं । शास्त्रकारों का उल्लेख देखने में आता है कि "श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि"। इसलिये इसे मंगल बुद्धि से पहले कहा है और दूसरा इस आसन में बैठने से सुस्ती-आलस दूर होता है, तीसरा हर एक इसे सहज में कर सकता है, इस वास्ते भी इसी स्वस्तिकासन का पहले स्वरूप-निर्देशन किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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