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भिक्षु प्रसन्न व शान्तभावसे रुग्ण साथी की परिचर्या करे ।
सामर्थ्य प्रतिज्ञा योग
शास्त्र में जो-जो उपाय दिखाए हैं उनका अतिक्रम अर्थात् शक्ति की अधिकता से जो धर्म व्यापार-योग का स्वीकार किया जाय उसे सामर्थ्य प्रतिज्ञायोग कहते हैं । इसमें सिद्धपद प्राप्ति की बहुत सम्भावना है, इसका अतिक्रम न करना चाहिए, किन्तु शास्त्र से सम्पूर्ण अर्थों को जानना चाहिए, इसका दूसरा नाम सामर्थ्य योग भी है । यह सर्वज्ञ पद, सिद्धिपद, एवं सकल प्रवचन - प्रज्ञा प्राप्ति आदि का हेतु है ।
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इसके दो भेद हैं- एक तो धर्म-संन्यास, दूसरा योग-संन्यास | मोहनीय के क्षयोपशम होने को धर्म संन्यास कहते हैं । कायादि व्यापार और कायोत्सर्ग आदि को योग - संन्यास कहते हैं । दोनों प्रकार के सामर्थ्ययोग समस्त लाभ के हेतु हैं और ये दोनों योगों का दूसरा अपूर्वकरण में समावेश होता है । इस जगह प्रथम अपूर्वकरण को यथाप्रवृत्तिकरण के साथ लिया है, इसलिए इसमें सामर्थ्ययोग नहीं हो सकता । क्योंकि इस जगह ग्रन्थिभेद नहीं है । इस लिए अनिवृत्तिकरण किये बाद यह धर्म - सामर्थ्ययोग होगा, क्योंकि अनादि काल से आत्मा के जो-जो अपूर्व शुभ और शुभतर परिणाम धर्मस्थानक के विषय में हैं, वही धर्म-संन्यास है । कारण यह है कि अनिवृत्तिकरण करने का फल है सम्यग्दर्शन, जिसके चिह्न हैं शम-संवेगादिरूप श्रात्मपरिणाम | शास्त्रों में कहा भी है कि—
" शम-संवेग निर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणैः ।
पञ्चभिः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ १ ॥ "
प्रर्थात् शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य इन पांचों लक्षणों से सम्यक्त्व पहचाना जा सकता है ।
और जब यथार्थ सम्यग्दर्शन होने पर जीव तथाविध कर्मस्थिति को कम करता है, तब धर्म-संन्यास नाम का प्रथम सामर्थ्ययोग होता है । क्योंकि शास्त्र में कहा है कि—
"गंट्ठित्ति सुदुब्भेओ, कक्खड - घर - रूढ़ - गंठ्ठव्व । जीवस्स कम्म जरिओ, घरण - राग-दोस - परिणामो || १ ||
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