________________
१६] माता-पिता की सच्चे मनसे सेवाकरो, बड़े भाईको पिता समान मानो।
, जैन समाज में योगाभ्यासी गुरुओं का प्राजकल प्रायः प्रभाव सा ही है। इस अभाव को दूर करने के लिए अध्यात्मानुभवी योगीश्वर महात्मानों, जैनाचार्यों का साहित्य आज भी विद्यमान है। इनसे योगाभ्यास चालू कर लाभ उठावें।
श्री वीतराग सर्वज्ञ देवाधिदेव तीर्थंकरदेवों का धर्म तो वही हो सकता है जिससे राग-द्वषादि मिटाकर प्रात्मा प्रशमरस निमग्न बन जावे । जिन उपायों से राग-द्वेष आदि पर विजय एवं शांति, आत्मज्ञान, पूर्णानन्द तथा समाधि की प्राप्ति होकर बाह्य और अभ्यंतर व्याधियों का नाश होना संभव है। जब तक आत्मा में निर्मलता और स्थिरता नहीं आती तब तक प्रशमरस की प्राप्ति भी असम्भव है । यह अवस्था योगाभ्यास से प्राप्त हो सकती है । कहा भी है
"अनेक शत-संख्याभिस्तर्क व्याकरणादिभिः।
पतिता शास्त्रजालेषु प्रज्ञयाः ते विमोहिताः ॥ १ ॥ (योग बीज ८) अर्थ-सैकड़ों तर्क शास्त्र तथा व्याकरणादि पढ़कर मनुष्य शास्त्र जाल में फंस कर केवल विमोहित हो जाते हैं। वास्तव में प्रकृति ज्ञान योगाभ्यास के बिना उत्पन्न नहीं होता। ..
मथित्वा चतुरो वेदान् सर्व शास्त्रानि चैवहि । सारस्तु योगीभिः पीतस्तकं पीवन्ति पंडिताः ।।
(ज्ञान संकलिनी तंत्र ५) अर्थ-चारों वेदों तथा सब शास्त्रों को मथ कर उनका मक्खन स्वरूप सारभाग तो योगी चाट गये और उसका असार भाग तक (छाछ) पंडित लोग पी रहे हैं।
योगाभ्यास को जैनों ने आत्म साधना के लिये सदा सर्वदा मुख्य साधन माना है । तीर्थंकरदेवों से लेकर चौदह पूर्वधारी श्री भाद्रबाहु स्वामी, श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री हरिभद्र सूरि, श्री हेमचन्द्राचार्य, श्री आनन्दधन जी, श्री यशोविजय जी, श्री चिन्दानन्द जी आदि सब महान योगाभ्यासी हुए हैं । तीर्थंकर देवों की ध्यानावस्था में विराजित प्रतिमाएं तो साक्षात् योगाभ्यास की मुख बोलती आकृतियां हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org