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________________ NEJ थोड़ेमें कहीं जानेवाली बातको व्यर्थ ही लम्बी न करो। जिह्वा नासा अग्रे फुनि, भ्र को मध्य विचार। सुर जोयन कीकी कही, अणुक्रम थी चित्त धार ॥ ३६४ ॥ अर्थ-इस श्लोक का पद्य नं० ३६३ से . सम्बन्ध है अर्थात् जिह्वा को अरुन्धती, नासिका के अग्रभाग को ध्रुव तारा, आंख की कीकी को बालिका तथा भ्रकुटी को मातृमंडल' कहा है-३६४ रसना शशि, दिवस स्थिति, घ्रान हुताशन जान । बालिका नव तारका, पंच काल' पहिचान ॥ ३६५॥ उनकी भोजन में रुचि न हो अथवा खाया न जावे या खा कर वमन कर दे तो बहुधा वह रोगी मर जाता है। (घ) जो मनुष्य सुखमना स्वर में बीमार होता है वह बहुधा स्वस्थ नहीं होता। (ङ) रोगोत्पत्ति काल में जिस मनुष्य का प्रथम सुषुम्ना स्वर चलता हो और आकाश तत्त्व का प्रवाह हो तो वह रोगी शीघ्र मरेगा। (च) दाहिने हाथ की मुट्ठी बांध कर मस्तक पर लगा कर देखे तो छः मास आयु बाकी रहने पर मुट्ठी और हाथ न्यारे-न्यारे दिखलाई पड़ेंगे। (छ) यदि दूत किसी वैद्य या ज्योतिषी के घर बुलाने या प्रश्न पूछने को जावे और उस समय वैद्य तथा दूत अथवा दूत तथा ज्योतिषी का सुषुम्ना (दोनों नथनों वाला) स्वर चले तो उस रोगी का बचना बड़ा कठिन है। (ज) हाथ की मध्यमा अंगुली को मोड़ कर अंगूठे की जड़ में लगा कर बाकी अंगुलियों को धरती पर जमावें । फिर एक अंगुली उठावें फिर जहां की तहां स्थित करें। यदि केवल अनामिका ही उठे तो समझना कि दोपहर में मृत्यु हो जायगी। (झ) जो पुरुष स्वप्न में काले और लाल रंग के वस्त्र पहने हुए तथा लाल और काले रंग के पदार्थों से विलेपन किये हुए स्त्री को प्रालिंगन करे तो उसकी मृत्यु होगी। जो मनुष्य स्वप्न में डरावना, विकार वाला मुंह, काला और नग्न पिंजर वाला अथवा हंसता दीख पड़े तो उसकी मृत्यु होती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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