SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय है। मरे न तोहु मरण सम, कष्ट अवश्य तस होय ॥ ३२२ ॥ दूर गमन में सर्वदा, प्रबल' योग चितधार । निकट पंथ में मध्यहु, जानिजे सुखकार ॥ ३२३ ॥ ६- कार्य सिद्धि की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिये कि गुरु, बन्धु, राजा, प्रधान तथा दूसरे भी जो अपने को इच्छित वस्तु देने वाले हों उनको अपने पूर्णाङ्ग [चलते स्वर की तरफ रखना चाहिए । अर्थात् अपने बहते स्वर] की तरफ रखकर स्वयं बैठे। ७-आसन तथा शयन के समय अपने चलते स्वर की तरफ बैठाई हुई स्त्री अपने अधीन हो जाती है। इसके समान दूसरा कोई कार्मण नहीं है। ८-अपना अन्नदाता, गुरु आदि मालिक, अथवा मुरब्बी (बुर्जुग) किसी भूल' पर क्रोधित होकर दण्ड अथवा सज़ा देने को बुलावे तो जाने के समय जो स्वर चलता हो उस तरफ का पग प्रथम उठाकर चले और मालिक आदि के सामने पहुंचे, वहां पहुंच कर फिर अपना स्वर देखे । यदि अपना चन्द्र स्वर चलता हो तो मालिक की दाहिनी ओर खड़ा हो । यदि सूर्य स्वर चले तो मालिक की बांई ओर खड़ा होकर उनके प्रश्नों का उत्तर दे । ऐसा करने से निःसन्देह कुशलता पूर्वक विदा हो आवे और स्वामी आदि अधि काधिक प्यार करें। ६-शत्रु के शस्त्र प्रहार करते समय का विचार रिपु शस्त्रसंप्रहारे रक्षति यः पूर्णगात्रभूभागम् । बलिभिरपि वैरिवगैर्न भेद्यते तस्य सामर्थ्यम् ।। ६३ ॥ (ज्ञानार्णव) ___ अर्थ-शत्रु के शस्त्र प्रहार होते समय अपना जो स्वर भरा हो उस स्वर की तरफ वैरी रहे तो उस पुरुष की सामर्थ्य बलवान शत्रु से भी भेदी नहीं जा सकती अर्थात् वैरी के साथ लड़ाई होते वैरी की तरफ अपना भरा स्वर हो वही रखने से अपनी जीत होती है। १०-छिपी वस्तु के विषय में प्रश्न निर्णय पवनप्रवेशकाले जीव इति प्रोच्यते महामतिभिः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy