SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान नहीं है तो चरित्र भी नहीं है। [७१ इस स्वर में बहुत जल्दी ध्यान' जमता है । दूसरा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये-२२१ हो उस तरफ के हाथ की हथेली मुख पर रख कर उसी तरफ का पग बिछोने पर से प्रथम धरती पर रखने से इच्छा सिद्धि प्राप्त होती है। (६) जिसे अधिकतर अजीर्ण रहता हो वह प्रातः काल कोई भी वस्तु खाये बिना खाली पेट ८-१० काली मिर्चे धीरे-धीरे चबा जावे । पन्द्रह-बीस दिन तक ऐसा क्रम जारी रखने से पुराने अजीर्ण का रोग नाश पा जाता है । (७) रक्त शुद्धि:यदि किसी भी कारण से रुधिर में बिगाड़ हो गया हो तो इस रक्त विकार के कारण शरीर में फोड़े फुसियां आदि निकल आते हों तो अमुक दिनों तक नियम पूर्वक "शीतली कुम्भक" करने से रक्त शुद्धि होती है। और चर्म रोग मिट जाते हैं। (८) जवानी कायम रखने के लिए इच्छानुसार स्वर बदलने का अभ्यास करने से जवानी टिकी रहती है। दिन में जब भी समय मिले जो स्वर चलता हो उसे तुरन्त बदलने का प्रयास करें। इस प्रकार दिन में कई बार स्वर बदलने के अभ्यास से चिर यौवन प्राप्त होता है। ऊपर की क्रिया के साथ-साथ प्रातः सायं "विपरीत करणी" मुद्रा भी की जावे तो अतीव लाभ मिलता है । (६) दीर्घायुष्य के लिए!-साधारणतया श्वास की साधारण गति का प्रमाण नासिका में से बाहर निकलते १२ अंगुल' का होता है तथा नासिका में प्रवेश करते इसकी गति का प्रमाण १० अंगुल' का होता है । श्वास को एक बार अन्दर जाकर बाहर जाने तक साधारण कालमान कुल ४ सेकेंड लगभग होता है । यह कालमान और गति का प्रमाण दोनों को जैसे बने वैसे कम करने से मनुष्य दीर्घायु होता है। धातु की दुर्बलता आदि बीमारी वाले मनुष्य के श्वास की गति का प्रमाण अधिक और समय का प्रमाण न्यून होता है। मनुष्य की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं में उसके श्वास की गति का प्रमाण कितना होता है उसकी तालिका नीचे दी जाती है (१) गाते हुए श्वास की गति का प्रमाण १६ अंगुल होता है । (२) खाते समय २० अंगुल, (३) चलते हुए २४ अंगुल, (४) सोते हुए ३० अंगुल, (५) मैथुन करते ३६ अंगुल होता है । (६) व्यायामादि कठिन परिश्रम करते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy