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________________ कुछ पूजा करनेवाले भगवान को तिलक करते हैं, वह भी ऐसा अविवेक से करते हैं मानो उन्हें पूजा का कोई ध्यान ही नहीं। भगवान के प्रति उसके अंतःकरण में कितना सम्मान होगा, ऐसा विचार उसे पूजा करता देखकर हो जाता है। यदि भगवान के प्रति सच्चा भक्तिभाव होता, 'भगवान की पूजा मुझे अपने द्रव्य से ही करनी चाहिए' ऐसा ख्याल होता और 'मैं कमनसीब हूँ कि स्व-द्रव्य से मैं जिनपूजा करने में समर्थ नहीं'- ऐसा लगता होता, तो वह शायद संघ द्वारा की गई व्यवस्था का लाभ लेकर पूजा करता। तब भी वह इस प्रकार करता कि उसकी प्रभुभक्ति और भक्ति करने की मनोजागृति तुरंत ही दृष्टव्य होती। स्व-द्रव्य से पूजा करनेवालों को वह हाथ जोड़ता और स्व-काया से जिनमंदिर की तथा जिनमंदिर की सामग्री की जितनी भी देख-रेख हो सकती हो उसे करने में वह कभी न चूकता। आज तो ऐसी सामान्य बातें भी यदि कोई साधु भी कहे तब भी कुछ लोगों को भारी लगती हैं। आपके पास द्रव्य होने पर भी दूसरे के द्रव्य से पूजा करो तो उसमें 'आज मेरा श्रीमंतपना सार्थक हुआ' ऐसा भाव प्रकट करने के लिए कोई अवकाश है क्या? वास्तव में भक्ति के भाव में त्रुटि आई है। इसीलिए आज उल्टे-सीधे विचार सूझते हैं। जिनमंदिर में रखी हुई सामग्री से ही पूजा आदि करनेवालों का विवेकहीनपना दिखाई देता है, उसका कारण क्या? स्वयं की सामान्य मूल्य की वस्तुओं की भी वह जिस तरह संभाल करता है, उतनी मंदिर की बहुमूल्य वस्तुओं की वह संभाल नहीं करता। वास्तव में तो जिन मंदिर या संघ की छोटी से छोटी, साधारण से साधारण मूल्य की वस्तुओं की भी अच्छे से अच्छे प्रकार से संभाल करनी चाहिए। ___ आज 'मुझे स्वद्रव्य से ही जिन पूजा करनी चाहिए'- यह बात बिसरती जा रही है और इसीलिए जिन स्थानों पर जैनों के अधिकाधिक घर होते हैं, उनमें भी संपन्न स्थिति वाले घर होते हैं, वहाँ पर भी केसर और चंदन के खर्च के लिए चिल्लपों मचने लगी है। इसके उपाय स्वरूप देवद्रव्य से जिनपूजा करने के बदले, सामग्री संपन्न जैनों को अपनी-अपनी सामग्री से शक्ति के अनुसार पूजा करने का उपदेश देना चाहिए। देवद्रव्य के रक्षणार्थ भी इस देवद्रव्य में से श्रावकों की पूजा की सुविधा देने का मार्ग योग्य नहीं। देवद्रव्य का दुरुपयोग रोकना हो और सदुपयोग कर लेना हो, तो आज जीर्ण मंदिर कम नहीं हैं। समस्त मंदिरों के जीर्णोद्धार करने का निर्णय धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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