SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'स्वप्न की आय देवद्रव्य में ही जाती है। पू. पाद श्री आत्मारामजी महाराज का शास्त्रमान्य एवं सुविहित परम्परानुसार स्पष्ट अभिप्राय । प्रश्न - स्वप्न उतारना, घी चढ़ाना, फिर नीलाम करना और दो तीन रुपये मन बेचना, सो क्या भगवान का घी सौदा है ? उत्तर - स्वप्न उतारना, घी बोलना आदि धर्म की प्रभावना और जिनद्रव्य की वृद्धि का हेतु है । धर्म की प्रभावना करने से प्राणी तीर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कथन श्री ज्ञातासूत्र में है । जिनद्रव्य की वृद्धि करनेवाला भी तीर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कथन सम्बोध सत्तरी शास्त्र में है । घी की बोली के वास्ते जो लिखा है उसका उत्तर यों जानो कि जैसे तुम्हारे आचारांगादि शास्त्र भगवान की वाणी दो या चार रुपये में बिकती है, वैसे ही घी के विषय में भी मोल समझो । - 'समकित सारोद्धार' में से बीसवीं सदी के अद्वितीय शासन प्रभावक, जंगमयुग प्रधानकल्प न्यायांभोनिधि पू. पाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी महाराजश्री के विशाल सुविहित साधु-समुदाय में भी स्वप्न-द्रव्य की व्यवस्था के विषय में उस समय शास्त्रानुसारी मर्यादा का पालन कितना चुश्तता से और कठोरता से होता था, यह बात निम्नलिखित पत्र-व्यवहार से स्पष्ट प्रतीत होती है । पूज्य आत्मारामजी म. श्री के शिष्यरत्न पू. प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराजश्री के शिष्यरत्न पू. विद्वान् मुनिप्रवर श्री चतुरविजय महाराजश्री जो विद्वान् पू. मुनिराज श्री पुण्यविजयजी म.श्री के गुरुवर है, वे नीचे प्रकाशित किये जानेवाले पत्र में स्पष्टरूप से कहते हैं कि 'मेरे सुनने में कभी नहीं आया कि स्वप्नों का द्रव्य उपाश्रय में खर्च करने की सम्मति दी हो ।' इससे यह स्पष्ट है कि स्वप्न द्रव्य की आय कदापि उपाश्रय में प्रयुक्त नहीं की जा सकती। आज इस पत्र को लिखे कितने ही वर्ष हो चुके हैं, उससे इतना तो समझा जा सकता है कि स्वयं उस समय अर्थात् आज से ६४ वर्ष पहले भी पूज्यपाद आ.भ. श्री धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? १२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy