________________
सेन प्रश्न के तीसरे उल्लास में पं. विजयकुशलगणिकृत प्रश्न (३९ वें प्रश्न) के उत्तर में बताया गया है कि देव के लिए जो आभूषण करवाये हों वे गृहस्थ को नहीं कल्पते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य और संकल्प देव-निमित्त है, अतः गृहस्थ को उनका उपयोग नहीं कल्पता है । उसी प्रकार संघ के बीच में स्वप्नों या पारणों के निमित्त जो बोली बोली जाती है, वह स्पष्ट रूप से देव निमित्त होने से उसकी आय देवद्रव्य मानी है । सं. १९९० के साधु सम्मेलन में भी पू.आचार्य देवों ने मौलिक-रीति से स्वप्नों के द्रव्य को देवद्रव्य मानने का निर्णय दिया है । तदुपरान्त १९९० [१९९४] के वर्ष में शान्ताक्रूझ (बम्बई) के संघ ने ऐसा ठहराव करने का विचार किया कि साधारण खाते में घाटा रहता है, इसलिए स्वप्नों के घी के भाव बढ़ाकर उसका अमुक भाग साधारण खाते में ले जाना । जब गच्छाधिपति स्व. पू.आ.भ. श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. श्री को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने श्रीसंघ के प्रसिद्ध विद्यमान पू. आचार्य देवों की सेवा में इस विषयक अभिप्राय परामर्श मांगने हेतु श्रीसंघ को पत्र व्यवहार करने की सूचना की । इस पत्र व्यवहार में जो उत्तर प्राप्त हुए वे सब मेरे पास थे जो ‘कल्याण' के दसवें वर्ष में प्रसिद्ध करने हेतु भेजे गये थे । वे आप देख सकते हैं । उससे भी सिद्ध होता है कि स्वप्नों की आय तथा पारणों की आमदनी देवद्रव्य गिनी जाती है । 'उपदेश सप्ततिका' में स्पष्ट उल्लेख है कि देवनिमित्त के द्रव्य का देव-स्थान के सिवाय अन्य स्थान में उपयोग नहीं किया जा सकता ।
माला का द्रव्य देवद्रव्य गिना जाता है । मालारोपण के विषय में धर्मसंग्रह' में स्पष्ट उल्लेख है कि ऐन्द्री अथवा माला प्रत्येक वर्ष में देवद्रव्य की वृद्धि हेतु ग्रहण करनी चाहिए। ‘श्राद्धविधि' में पाठ है । माला परिधापनादि जब जितनी बोली से किया हो वह सब देवद्रव्य होता है । इसी तरह श्राद्धविधि के अन्तिम पर्व में स्पष्ट प्रमाण है कि श्रावक देवद्रव्य की वृद्धि के लिए मालोद्घाटन करे उसमें इन्द्रमाला अथवा अन्य माला द्रव्य उत्सर्पण द्वारा अर्थात् बोली द्वारा माला लेनी चाहिए। इन सब उल्लेखों से तथा 'द्रव्य सप्ततिका' ग्रन्थ में देव के लिए संकल्पित वस्तु देवद्रव्य है ऐसा पाठ है । देवद्रव्य के भोग से या उसका नाश होता हो तब शक्ति होते हुए भी उसकी उपेक्षा करने से दोष लगते हैं । इस विषय में विशेष स्पष्टता चाहिए तो वहाँ विराजमान पू.आ.म. श्री विजय अमृतसूरीश्वरजी म. श्री से प्राप्त की जा सकती है । पत्र द्वारा अधिक विस्तार क्या किया जाय ?
(उक्त अभिप्राय पू.पाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरि के पट्टालंकार आ.भ. श्री विजयकनकचन्द्रसूरि महाराज का है ।) | धर्मदव्य का संचालन कैसे करे
३]
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org