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(सुविहित आचार्यदेवों की परम्परा से चली आती हुई आचरणा भी भगवान् की आज्ञा की तरह मानने हेतु भाष्यकार भगवान् सूचित करते हैं । निर्वाह के अभाव में देवद्रव्य में से गोठी को या नौकर को पगार दी जाए, यह अलग बात है परन्तु जहाँ निर्वाह किया जा सकता है वहाँ यदि ऐसा किया जाए तो दोष लगता है - ऐसा हमारा मन्तव्य है ।)
स्वस्ति श्री राधनपुर से लि. आचार्य श्री विजय कनकसूरिजी आदि ठाणा १० तत्र श्री वेरावल मध्ये सुश्रावक देवगुरुभक्तिकारक शा.. अमीलाल रतिलाल भाई योग्य धर्मलाभ पहुंचे। यहां देवगुरु कृपा से सुखशाता वर्ते है । आपका पत्र मिला । उत्तर निम्न प्रकार से जानना :
चौदह स्वप्न, पारणा, घोडिया तथा उपधानमाला आदि का घी या रोकड रुपया बोला जाय वह शास्त्र की रीति से तथा सं. १९९० के अहमदाबाद मुनि सम्मेलन में ९ आचार्यों की हस्ताक्षरी सम्मति से पारित प्रस्ताव के अनुसार भी देवद्रव्य है । सम्मेलन में सैकड़ों साधु-साध्वी तथा हजारों श्रावक थे । उस प्रस्ताव का किसी ने विरोध नहीं किया । सबने उसे स्वीकार किया ।
धर्मकरणी में भाव रखना, यही सार है । श्रावण सुदी १४
लि. 'विजयकनकसूरि का धर्मलाभ'
(वागडवाला) पं. दीपविजय का धर्मलाभ वांचना (स्व. पू.आ.भ. श्री विजयदेवेन्द्रसूरि म.) (७)
भायखला जैन उपाश्रय, लवलेन
बम्बई नं. २७ ता. १५-८-५४ लि. विजयामृतसूरि. पं. प्रियंकरविजयगणि (वर्तमान में पू.आ.भ.श्री.विजय प्रियंकरसूरिजी म.) आदि की तरफ से देवगुरु भक्तिकारक श्रावक अमीलाल रतिलाल योग्य धर्मलाभ । आपका कार्ड लालवाड़ी के पते का मिला । यहां प्रातः स्मरणीय गुरु महाराजश्री के पुण्य प्रसाद से सुखशाता वर्त रही है । ११४
धर्मद्रव्य का संचालन केसे करे ?
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