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अत्यन्त आवश्यकता -
जैन शासन सात क्षेत्रों में विभाजित है । उसमें सर्व प्रथम १-जिनप्रतिमा और २- जिनमंदिर आते हैं । इसके पश्चात् ३- जिनागम आते हैं और इसके बाद इन तीनों को माननेवाले ४- साधु, ५- साध्वी, ६- श्रावक, ७-श्राविका आते हैं ।
ये सातों सात क्षेत्र अपने मूलभूत रूप में स्थित रहें, यह देखने की जिम्मेदारी आपकी -हमारी-हम सब की है । ये सभी क्षेत्र सजीव रहें, जगत का उद्धार करते रहें, किसी भी प्रकार से पीड़ित न हों, उपेक्षित न हों, इसके लिए सब कुछ ही करने की आपकी, हमारी जिम्मेदारी है । अपनी भूमिकानुसार हम सबको यह जिम्मेदारी वहन करनी है । जिम्मेदारी का अच्छी तरह निर्वहन करने के लिए हमको बहुश्रुत श्रावक बनने की महति आवश्यकता है ।
बहुश्रुत बनने के लिए गुरुमुख से शास्त्रज्ञान पाना जरूरी है । यहाँ व्यवस्था कर्तासंचालक पुण्यात्माओं को 'श्राद्धविधि' ग्रंथ का अभ्यास सर्व प्रथम कर लेना आवश्यक है । उसमें श्रावक जीवन के मूलभूत आचारों का विस्तार से वर्णन है । यह ग्रंथ गुजराती और हिन्दी भाषा में प्रकाशित हो चुका है I
दूसरे नंबर पर संचालकों को 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रंथ का अभ्यास करना आवश्यक है । भगवंत की आज्ञानुसार सात क्षेत्रों एवं अनुकंपा - जीवदया क्षेत्रों का व्यवस्थापन संचालन किस प्रकार करना व किस प्रकार नहीं करना इत्यादि महत्त्वपूर्ण जानकारियां उसमें दी गई है । आज से ३०० वर्ष पूर्व वह ग्रंथ पूर्वाचार्यों के अनेक ग्रंथों का आधार लेकर पू. उपाध्याय श्री लावण्यविजयजी महाराज ने बनाया है ।
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