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ता. २८-९-३८ सिद्धक्षेत्र पालीताणा से लि० आचार्य श्री विजयमोहनसूरिजी आदि । तत्र देवगुरु भक्तिकारक सुश्रावक सेठ जमनादास मोरारजी म. शान्ताक्रुझ योग्य धर्मलाभ के साथयहाँ देवगुरु प्रसाद से सुखशाता है । आपका पत्र मिला । समाचार जाने ।
पर्वाधिराज श्री पर्युषण पर्व में स्वप्नों की बोली के द्रव्य को किस खाते में गिनना, यह पूछा गया तो इस विषय में यह कहना है कि-गज, वृषभादि जो चौदह महास्वप्न श्री तीर्थंकर भगवन्त की माता को आते हैं, वे त्रिभुवन पूज्य श्री तीर्थंकर महाराज के गर्भ में आने के प्रभाव से ही आते हैं । अर्थात् माता को आनेवाले स्वप्नों में तीर्थंकर भगवान् ही कारण हैं।
उक्त रीति से स्वप्न आने में जब तीर्थंकर भगवन्त कारण हैं तो उन स्वप्नों की बोली के निमित्त जो द्रव्य उत्पन्न होता है, वह देवद्रव्य में ही गिना जाता है । ऐसा हमको उचित लगता है । जिस द्रव्य की उत्पत्ति में देव का निमित्त हो वह देवद्रव्य ही गिना जाना चाहिए, ऐसा हम मानते हैं । इतना ही । धर्मकरणी में विशेष उद्यत रहें । स्मरण करनेवालो को धर्मलाभ कहें।
आसोज सु. ३ सोमवार
द. : धर्मविजय का धर्मलाभ वर्तमान में पू.आ.म. श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी म. आप के यहाँ आज तक बोली का भाव प्रति मन ढाई रुपया था और वह सब देवद्रव्य गिना जाता था । वह ढाई रुपया देवद्रव्य का कायम रखकर मन का भाव आपने पांच रुपया करना ठहराया । शेष रुपये ढाई साधारण खाते में ले जाने का आपने नक्की किया, यह हम को शास्त्रीय दृष्टि से उचित नहीं लगता । आज तो आपने स्वप्नों की बोली में यह कल्पना की, कल प्रभु की आरती पूजा आदि की बोली में भी इस प्रकार की कल्पना करेंगे तो क्या परिणाम आवेगा ? अतः जो था वह सर्वोत्तम था । स्वप्नों की बोली के ढाई रुपये कायम रखिये और साधारण की आय के लिए स्वप्नों की बोली में कोई भी परिवर्तन किये बिना दूसरा उपाय ढूंढिये; यह अधिक उत्तम है । इतना ही । धर्मकरणी में उद्यत रहें । धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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