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________________ परिशिष्ट - ७ शास्त्रानुसारी महत्त्वपूर्ण निर्णय स्वप्नों की घी की बोली का मूल्य बढ़ाकर वह वृद्धि साधारण खाते में नहीं ले जा सकते। पू. पाद सुविहित आचार्यादि मुनि भगवन्तों का शास्त्रानुसारी सचोट मार्गदर्शन समस्त भारत वर्ष के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघों को सदा के लिए मार्गदर्शन प्राप्त हो, इस शुभ उद्देश्य से एक महत्त्वपूर्ण पत्र-व्यवहार यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है । इसकी पूर्व भूमिका इस प्रकार है । वि.सं. १९९४ में शान्ताक्रुझ (बम्बई) में पू. पाद सिद्धान्त महोदधि गच्छाधिपति आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजश्री की आज्ञा से पूज्य मुनिवर श्री [?] पर्युषणा पर्व की आराधना के लिए श्रीसंघ की विनति से पधारे थे। उस समय संघ के कई भाइयों की भावना साधारण खाते के खर्च को पूरा करने के लिए स्वप्नों की बोली में घी के भाव बढ़ाकर उसे साधारण खाते में ले जाने की हुई । यह भावना जब संघ में प्रस्ताव के रूप में रखी गई तो उस चातुर्मास में श्री पर्युषण पर्व की आराधना कराने श्रीसंघ की विनति से पधारे हुए पू. मुनि-महाराजाओं ने उसका दृढ़ता से विरोध करते हुए बताया कि 'ऐसा करना उचित नहीं है । यह न तो शास्त्रानुसारी है और न व्यावहारिक ही । स्वप्नों की बोली में इस प्रकार साधारण खाता की आय नहीं मिलाई जा सकती है । इसमें हमारा स्पष्ट विरोध है ।' उन्होंने यह भी कहा कि - 'संघ को इस विषय में निर्णय लेने के पहले जैन संघ के विराजमान एवं विद्यमान पू. सुविहित शासनमान्य आचार्य भगवन्तों से परामर्श करना चाहिए और उसके बाद ही उनकी सम्मति से ही इस विषय में निर्णय लिया जाना चाहिए ।' अतः तत्कालीन शान्ताक्रुझ संघ के प्रमुख सुश्रावक जमनादास मोरारजी जे.पी. ने इस बात को स्वींकार करके समस्त भारत के जैन श्वे. मू. पू. संघ में, उसमें भी तपागच्छ श्रीसंघ में विद्यमान पू. आचार्य भगवन्तों को इस विषय में पत्र लिखे । वे पत्र तथा उनके जो प्रत्युत्तर प्राप्त हुए, वह सब साहित्य वि. सं. १९९५ के मेरे [पू. आ. श्री कनकचन्द्रसूरि म.] लालबाग जैन उपाश्रय के चातुर्मास में मुझे सुश्रावक नेमिदास अभेचन्द मांगरोल निवासी के माध्यम से प्राप्त हुआ । उसे मैंने [पू. आ. श्री कनकचन्द्रसूरि म. ] पहले ‘कल्याण' मासिक में प्रकाशनार्थ दिया और आज फिर से अनेक सुश्रावकों की भावना को स्वीकार कर पुस्तक के रूप में उसे प्रकाशित किया जा रहा है । धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only १०३ www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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