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प्रश्न - देवद्रव्य-भक्षक-गृहे जेमनाय गन्तुं कल्पते ? नवा इति-गमने वा तद् जेमन-निष्क्रय-द्रव्यस्य देवगृहे मोक्तुमुचितम् नवा इति ? मुख्यवृत्त्या तद् गृहे भोक्तुं नैव कल्पते ।
देवद्रव्य का भक्षण करनेवाले के घर जीमने जाना कल्पता है या नहीं ? और जीमने जावे तो वह जीमन का निष्क्रय द्रव्य देवमंदिर में देना उचित है या नहीं ? मुख्यतया उस घर जीमने जाना कल्पता नहीं है ।
चेइअ दव्वं गिणिहंतु भुंजए जइ देइ साहुण । सो आणा अणवत्थं पावई लिंतो विदितोवि ।।
व्यवहार-भाष्य में कहा है कि जो देवद्रव्य ग्रहण करके भक्षणं करता है और साधु को देता है वह आज्ञाभंग, अनवस्था दोष से दूषित होकर और लेनेवाले और देनेवाले दोनों पाप से लिप्त होते हैं ।
अत्र इदम् हार्दम्-धर्मशास्त्रानुसारेण लोकव्यवहारानुसारेणापि यावद् देवादि ऋणम् सपरिवार-श्राद्धादेर्मूर्ध्नि अवतिष्ठते तावद् श्राद्धादि-सत्कः सर्वधनादि - परिग्रहः देवादि-सत्कतया सुविहितैः व्यवह्रियते संसृष्टवात् ।
यहाँ यह रहस्य है कि धर्मशास्त्र एवं लोक व्यवहार से भी जब तक देवादि का ऋण परिवारवाले श्रावकादि के सिर पर रहता है, तब तक श्राद्धादि का सभी धनादि परिग्रह संपत्ति देवद्रव्यादि-मिश्रित है । इससे उसके घर में भोजन करने से उपरोक्त दोष लगते हैं ।
मूल्लं विना जिणाणं उवगरणं, चमर छत्तं कलशाइ । जो वापरेइ मूढो, निअकज्जे, सो हवइ दुहिओ ।।
जो जिनेश्वर भगवान के उपकरण, चामर, छत्र, कलशादि का भाड़ा (किराया) दिए बिना अपने कार्य में लेता है, वह मूढ दुःखी होता है ।
देवद्रव्येण यत्सौख्यं, परदारतः यत्सौख्यम् । अन्तान्तदुःखाय, तत् जायते ध्रुवम् ।। भावार्थ - देवद्रव्य से जो सुख और परस्त्री से जो सुख प्राप्त होता है, वह सुख अनंतानंत दुःख देनेवाला होता है ।
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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