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धर्मद्रव्य के भक्षण, उपेक्षा और विनाश के
दारुण परिणाम - शास्त्र के आधार से । जिन-पवयण वृद्धिकरं पभावगं नाणदंसण-गुणाणं । भक्खंतो जिणदळ अनंत संसारिओ होइ (श्रा.दि.गा. १४२)
जैन शासन की वृद्धि करनेवाला और ज्ञान दर्शनादि गुणों की प्रभावना करनेवाला यदि देवद्रव्य का भक्षण करता है तो वह अनंत संसारी यानी अनंत संसार को बढ़ाता है और देवद्रव्य के ब्याज आदि द्वारा स्वयं लाभ उठाता है, वह दुर्भाग्य और दारिद्रावस्था को प्राप्त करता है और देवद्रव्य का नाश होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह जीव दुर्लभबोधि को प्राप्त करता है । जिणवरआणारहियं वद्धारंता वि के वि जिणदव् । बुड्डंति भवसमुद्दे मूढा मोहेण अनाणी ।। (संबोधप्रकरण गाथा-१०२) जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के विरूद्ध देवद्रव्य को बढ़ाता है, वह मोह से मूढ अज्ञानी संसार समुद्र में डूब जाता है । द्रव्यसप्ततिका टीका में कहा है कि, 'कर्मादानादि - कुव्यापारं वा, सद् - व्यापारादिविधिनैव तद् वृद्धिः कार्या ।' १५ कर्मादानादि के व्यापार को छोड़कर सद् व्यवहारादि की विधि से ही देवद्रव्य की वृद्धि करना चाहिए ।
भक्खेड़ जो उविक्खेइ जिणदव्वं त सावओ । पण्णाहीनो भवे जीवो लिप्पइ पावकम्मणा ।।
जो श्रावक देवद्रव्य का भक्षण करता है और देवद्रव्यादि का भक्षण करनेवाले की उपेक्षा करता है, वह जीव मंदबुद्धिवाला होता है और पाप कर्म से लेपा जाता है ।
आयाणं जो भंजइ पडिवंत्र - धणं न देइ देवस्स ।
गरहंतं चो - विक्खइ सो वि हु परिभमइ संसारे ।। __ जो देवद्रव्यादि के मकानादि का भाड़ा, पर्युषणादि में बोले गए चढ़ावे, संघ का लागा और चंदे आदि में लिखवाई गई रकम देता नहीं है या बिना ब्याज से देरी से देता है और जो देवद्रव्य की आय को तोड़ता है, देवद्रव्य का कोई विनाश करता हो तथा उगाही आदि की उपेक्षा करता हो वह भी संसार में परिभ्रमण करता है । श्राद्धविधि १२९
| धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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