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________________ ध्यान रखें । तत्पश्चात् उन्हें किसी निर्जन स्थान पर, पहाड़ियों के गड्ढों में या ऐसे ही किसी सूखे स्थान में ध्यानपूर्वक परठावें । परठवने के समय ‘अणुजाणह जस्सुग्गहो' और परठवने के पश्चात् 'वोसिरे वोसिरे वोसिरे' ऐसा बोलना चाहिए। विशेषकर पानी में, नदी में, तालाब में, समुद्र में या अन्य किसी आर्द्रतावाली जगह में कागज को न परठा । क्योंकि ऐसा करने से कागज में उत्पन्न हुई दीमक-कीड़ेकन्थ आदि जीवों की हिंसा-विराधना हो जाती है । उसी तरह जहाँ लोगों का आनाजाना हो ऐसे स्थानों में भी परठना न चाहिए, ताकि उन काग़जों का उपयोग जलाने आदि किसी भी कार्य में न हो । यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो कागज पड़े रहते हैं, सड़ जाते हैं, उनमें उपरोक्त जीव-जंतु पैदा हो जाते हैं, उनकी हिंसा होती है । वह न हो अतएव विधिपूर्वक प्रयत्न करने का ध्यान रखें । शंका-६० : जिनमंदिर में ललाट पर कपाली-सोने चांदी की पट्टी लगाई जाती है, वह पट्टी राल में घी डाल कर उसे मसल कर चिपकाई जाती है, पर यह पट्टी गर्मी के दिनों में निकल जाती है । प्रक्षाल के समय भी निकल जाती है । तो उसे राल के बदले स्टीक-फास्ट जैसे किसी पेस्ट से चिपकाया जाए तो अच्छी तरह चिपकती है, निकलती नहीं । हमारे मंदिर में भगवान को ऐसी पट्टी चार महिनों से स्टीक फास्ट से चिपकाई हुई है, जो आज तक फिट रही है । तो चिपकाने में कोई हर्ज ? जो हर्ज-दोष न हो तो फिर चक्षु (आँखें) एवं टीका (तिलक) भी उसी से चिपकाएँ तो निकलेंगे नहीं । देखने में भी अच्छे लगेंगे। समाधान-६० : सबसे पहले यह बात जानें कि भगवान के ललाट पर किसी सोनेचांदी की पट्टी लगाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । कई बार मुकुट को आधार रहे अतः या फिर एक ने किया सो देख कर-देखादेखी से भी ऐसी चीजें बनवाकर लगा देते हैं । जिनेश्वर भगवान की प्रतिमाजी को चक्षु-टीका आदि कोई भी चीज कायमी तौर पर चिपकाने हेतु ‘राल' का ही प्रयोग होना चाहिए । सेन-प्रश्न में ऐसा खुलासा किया गया है । राल में गाय का घी थोड़ा-थोड़ा डालकर बराबर एकरस लेप बन जाने तक कूटना होता है । सभी दाने कूटे जाने पर एकरस एवं सघन क्रीम जैसा बन जाए, बाद में ही चिपकाने में काम लें । इस तरह से चिपकाने के बाद बरास का लेप या फिर भीगे अंगलूछने से उसे ठंडक देकर रखें । इस तरह करने से दो-चार दिनों में ही वह कठोर बन कर जम जाएगी । | ९२ धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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