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________________ प्रकाशकीय जिनाज्ञा का महत्त्व और सात क्षेत्र महिमा कलिकाल सर्वज्ञप्रभु पू. आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराज ने योगशास्त्र में लिखा है कि, 'सूर्य-चंद्र यथासमय उदित होते हैं और अस्त होते हैं, पृथ्वी स्थिर रहती है और जगत को धारण करती है, सागर मर्यादा चूकता नहीं है और ऋतुएँ यथासमय परिवर्तित होती हैं, यह सारा प्रभाव धर्म का है । यह धर्म प्रभु की आज्ञा में रहा हुआ है और प्रभु की यह आज्ञा द्वादशांगी में समायी हुई है। द्वादशांगी-शास्त्र में बताई गई आज्ञा विश्व के सभी जीवों को सुख देती है । जो भी जीव आज्ञा का पालन करता है, वह नितांत सुख का भागी होता है, जो प्रभु की आज्ञा की विराधना करता है, वह दु:ख ही पाता है । भगवंत की आज्ञा को समझना, श्रद्धा करनी और शक्त्यानुसार उसका पालन करना, हम सबका कर्त्तव्य है । आज्ञा को समझने के लिए सात क्षेत्र का स्वरूप समझना अनिवार्य है । जिनप्रतिमा, जिनमंदिर, जिनागम और भगवंत के बताए हुए मार्ग पर चलने वाले साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - इन सात क्षेत्रों के आलंबन, प्रभाव और भक्ति से जीवों के रागद्वेष शांत होते हैं । राग-द्वेष शांत होने से दुःख, पाप, कलह, अशांति और भवभ्रमण से सदा के लिए मुक्ति मिलती है। इन सात क्षेत्रों के जिनाज्ञानुसार विनय-विवेकपूर्वक नियमानुसार संचालन और उपयोग से जैनशासन २१००० वर्ष तक चलने वाला है । और उस जैनशासन से आगामी काल में सभी जीवों का कल्याण होने वाला है । जैनशासन के सात क्षेत्रों का सुचारु संचालन करनेवालों संचालकों - ट्रस्टीगणों आदि आगेवान पुण्यात्माओं को तीर्थंकर गौत्र का बंध होता है और जिनाज्ञा से विपरीत संचालन यावत् दुःख, दारिद्र और दुर्गति तक का फल देता है । ____ श्री द्रव्य सप्ततिका ग्रंथ के माध्यम से सातक्षेत्र का महत्त्व, भक्ति और आराधना - विराधना का फल-विपाक समझाकर महत् उपकार करने वाले मार्गदर्शक प्रवचनप्रभावक पू.आ.श्री. विजय कीर्तियशसूरीश्वरजी महाराजा तथा उनके शिष्यगणों के हम सदा ऋणी रहेंगें । ___ चलें ! हम इस पुस्तक से सात क्षेत्रों की समझ पाकर समुचित द्रव्य संचालन और द्रव्य का सुयोग्य उपयोग करने में सजग बनें । फलरूप सुख-सद्गति और मोक्ष के अधिकारी बनें । - श्री जैन धर्मध्वज परिवार IX lain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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