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खरतरगच्छशृंगार दादाजी इति प्रसिद्ध नाम्ना श्रीजिनदत्तसूरीश्वराणांमूर्ति कारितं प्रतिष्ठिता च तपगच्छालंकार श्रीविजयवल्लभसूरि पट्टधरेण श्रीविजयसमुद्रसूरि..................मंगलम्
(२६८७) जिनदत्तसूरि-प्रतिमा श्रीविक्रम सं० २०१६ वै० सु० ११ चन्द्रे श्रीबालचंद मुकनचंद पारख द्वारा युगप्रवर गुरुदेव श्रीजिनदत्तसूरिबिं० का० जैनाचार्य खरतरगच्छाधिपति भट्टारक श्रीजिनविजयेन्द्रसूरीणा दाढीनगरे प्रतिष्ठितं ॥
(२६८८) जिनकुशलसूरि-पादुका जं० यु० प्र० भ० दादासाहिब श्रीजिनकुशलसूरीणां पादुका श्रीहैदराबाद सिकन्दराबाद श्रीसंघेन कारिता व्या० वा० श्रीकांतिसागर दर्शनसागराभ्यां प्रतिष्ठापिता च वि० सं० २०१६ पौष शुक्ला १३ कुलपाक
तीर्थ
(२६८९) शिलालेखः ॐ परम पूज्य गुरुदेव व्याख्यान वाचस्पति शासन प्रभावक श्री १००८ श्रीकांतिसागरजी म० सा० एवं० न्याय व्याकरण तीर्थ साहित्यशास्त्री मुनिराज श्रीदर्शनसागरजी म० सा० के सानिध्य में इस परम पवित्र श्रीकुलपाक तीर्थ में हैद्राबाद-सिकंदराबाद श्रीसंघ के द्वारा प्राचीन ध्वजदण्ड कलश का जीर्णोद्धार कराकर अठाई महोत्सव शांतिस्नात्र विधि-विधान पूर्वक प्रतिष्ठा कार्य संपन्न हुआ है। यहां के चौमुखजी की प्रतिष्ठा भी गुरुदेव से ही हुई थी। आपके यहां विराजने पर श्री उद्यापन एवं श्री उपधान तप महोत्सव भी सानंद हुए। श्रीसंघस्य श्रेयसे भवतु, श्रीतीर्थस्य जयो वर्ततु, वीर संवत् २४८६ विक्रम सं० २०१६ पोष शुक्ल १३
(२६९०) जिनदत्तसूरि-मूर्तिः संवत् २०१७ मार्ग शु० ६ दिने खरतरगच्छालंकार जं० यु० प्र० दादा श्री १००८ श्रीजिनदत्तसूरीश्वराणां मूर्तिः जिनकृपाचंद्रसूरिशिष्य उपाध्याय मुनिसुखसागरोपदेशात् श्रीसंघेन कारिता प्रतिष्ठिता खरतरगणमुनीन्द्रैः ।।
(२६९१) जिनकुशलसूरि-मूर्तिः वि० सं० २०१७ मार्गशीर्ष शु० ६ दिने श्रीखर तर गच्छालंकार जं० यु० भ० दादाश्रीजिनकुशलसूरीश्वराणां मूर्तिः जिनकृपाचंद्रसूरिशिष्य उपाध्याय सुखसागरोपदेशात् श्रीसंघेन कारिता प्रतिष्ठिता खरतरगणमुनीन्द्रैः॥
(२६९२) यु० जिनचन्द्रसूरि-मूर्तिः सं० २०१७ मार्ग शु० ६ दिने श्रीखरतरगच्छालंकार जं० यु० प्र० अकबरप्रतिबोधक दादा श्री
२६८७. दाढ़ी दुर्ग (छत्तीसगढ): भँवर० (अप्रका०) २६८८. विनयसागर, कुलपाकतीर्थ, लेखांक ३४ २६८९. विनय सागर कुलपाक तीर्थः लेखांक ३६ २६९०. दादाबाड़ी, शत्रुजयः भँवर० (अप्रका०), लेखांक १२० २६९१. दादाबाड़ी, शत्रुजयः भँवर० (अप्रका०), लेखांक १२२ २६९२. दादाबाड़ी, शत्रुजयः भँवर० (अप्रका०), लेखांक १२१
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(खरतरगच्छ-प्रतिष्ठा-लेख संग्रहः
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