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> वाचनाचार्य साधुरंगगणि > उपाध्याय विनयप्रमोदगणि > वाचनाचार्य विनयलाभगणि > श्री सुमतिविमलगणि > वाचनाचार्य सुमतिसुन्दरगणि > वाचनाचार्य सुमतिहेमगणि > वाचनाचार्य सुमतिवल्लभगणि > वाचनाचार्य सुमतिधर्मगणि अपरनाम रूपचन्द्रजीगणि > पं० भगवानदास ने धर्मशाला बनवाई। लेखाङ्क १७१८ - सम्वत् १८६२ में श्री जिनहर्षसूरि के विजयराज्य में श्री रत्नराजगणि के शिष्य ज्ञानसारजी (नारायण बाबा) की विद्यमानता में ही उनके शिष्यों ने उनके चरण बनवाकर प्रतिष्ठापित किये। लेखाङ्क १८१८ - सम्वत् १८७७ में सवाई जयसिंह के विजयराज्य में आमेर नगर में सवाई जयनगर आदि के श्री संघ ने चन्द्रप्रभ मंदिर बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा जिनहर्षसूरि के राज्य में क्षेमकीर्तिशाखीय महोपाध्याय रूपचन्द्र के प्रशिष्य वाचक पुण्यशीलगणि के शिष्य महोपाध्याय शिवचन्द्रगणि ने करवाई। लेखाङ्क १८३६ - सम्वत् १८७६ में सूरतनगर में शाह कल्याणचन्द के पुत्र शाह सोमचन्द ने खरतरगच्छीय उपाध्याय दीपचन्द के शिष्य पं० देवचन्द्र के मुख से विशेषावश्यक वृत्तिगत गणधर- स्थापन और समवशरण विधि श्रवण कर महावीर स्वामी का समवशरण बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा ज्ञानविमलसूरि के पट्टधर श्री सौभाग्यसूरि के पट्टालंकार सुमतिसागरसूरि से करवाई। लेखाङ्क १९४२ - सम्वत् १८९३ मुम्बई निवासी नाहटा गोत्रीय सेठ अमीचन्द के पुत्र सेठ मोतीचन्द के पुत्र संघपति खेमचन्द ने शत्रुजय पर मोतीशाह की ट्रॅक बनवाकर आदिनाथ आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। प्रतिष्ठाकारक थे - पिप्पलक शाखा के श्री जिनदेवसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि की विद्यमानता में श्री जिनमहेन्द्रसूरि। सेठ मोतीशाह से सम्बन्धित अन्य लेखांक हैं- १९४३, १९४८, १९४९ आदि। लेखाङ्क १९५८ - सम्वत् १८९१ में जैसलमेर नगर के महारावल श्री गजसिंहजी और राणावत रूपजी के विजयराज्य में श्री जिनहर्षसूरि के पट्टधर श्री जिनमहेन्द्रसूरि के उपदेश से बाफणा गोत्रीय श्री देवराज के पौत्र श्री गुमानचन्दजी के पुत्र > बहादरमल्ल, सवाईराम, मगनीराम, जोरावरमल्ल, प्रतापचन्द और बहादरमल्लजी के पुत्र दानमल्ल आदि ने सिद्धाचलजी का संघ निकलवाया था। सवाईरामजी आदि भाईयों की वंश-परम्परा भी दी है। पाली से संघ ने प्रयाण किया था। बामनवाड़, आबू, जीरावला, तारंगा, शंखेश्वर, पंचासर, गिरनारजी होकर पालीताणा पहुँचा। समस्त चैत्यों को नमस्कार कर महोत्सव किया। इस संघ में ११ श्रीपूज्य और ५१०० साधु-साध्वी थे। जिनमहेन्द्रसूरि ने संघमाला पहनाई। सिद्धाचल मूलनायकजी के भण्डार पर तीन ताले गुजरातियों के थे और चौथा ताला इन बाफनाओं ने लगाया। लौटते हुए राधनपुर, गौड़ीजी होकर पाली आए। दानमलजी कोटा चले गए। चारों भाई जैसलमेर आए। रावलजी ने सन्मुख जाकर वधाया, भेंट की। रावलजी ने सिरपाव दिया और लौद्रवा का ताम्र पत्र दिया। XXVI
पुरोवाक्
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