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________________ प्रशस्ति देवतिलकोपाध्याय ने लिखी है। उक्त चौपड़ा गोत्रीय और शंखवाल गोत्र के द्वारा निर्मापित एवं प्रतिष्ठित जिन मूर्तियों के अनेकों लेख हैं। लेखाङ्क ११०७ - विक्रम सम्वत् १३८० में श्री जिनकुशलसूरिजी ने आदिनाथ चतुर्विंशति पट्ट की प्रतिष्ठा की थी, जो मण्डोवर के मंदिर में मूलनायक के रूप में विराजमान थी, उस मूर्ति के परिकर को पातशाह कम्मरां मुगल ने नष्ट कर दिया था। मूलनायक की मूर्ति को वहाँ से लाकर बीकानेर के राजा जयतसिंह के राज्य में वहाँ के मंत्री वच्छा (वत्सराज) के पुत्र मंत्री वरसिंह ने परिवार सहित जिनमाणिक्यसूरि से पुनः प्रतिष्ठा करवाकर चिन्तामणि मंदिर, बीकानेर में मूलनायक के रूप में सम्वत् १५९२ में विराजमान की। लेखाङ्क १११६ - सम्वत् १५९३ में बीकानेर के मंत्री वच्छा ने परिवार सहित मन्दिर बनवाकर भगवान् नमिनाथ को मूलनायक के रूप में विराजमान किया। लेखाङ्क ११३४ - सम्वत् १५९७ में कमलसंयम महोपाध्याय की पादुका प्रतिष्ठित की गई। लेखाङ्क ११५७ - सम्वत् १६१४ में वीरमपुर (नाकोड़ा) में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में श्री धनराजोपाध्याय के उपदेश से शानितनाथ चैत्य में प्रशस्ति लिखी गई। उस प्रशस्ति के लेखक थे- पंडित मुनिमेरु और राज्यकाल था राउल मेघराज का। लेखाङ्क ११९२ - सम्वत् १६४४ में फलौदी में मंत्री संग्राम के पुत्र मंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने जिनदत्तसूरि की पादुका की प्रतिष्ठा करवाई। लेखाङ्क ११९३ - सम्वत् १६४६ विजयदशमी के दिन सम्राट अकबर के राज्य में अहमदाबाद नगर में २५ देवकुलिका के साथ शान्तिनाथ विधि-चैत्य का उद्धार हुआ। प्रारम्भ में श्री उद्योतनसूरि से लेकर युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की पट्ट-परम्परा दी गई है। इस परम्परा में कतिपय आचार्यों की महनीय कार्यों का भी वर्णन है, जो निम्न है: १. उद्योतनसूरि - उद्यतविहारी थे। २. वर्धमानसूरि - विमल दण्डनायक निर्मापित विमलवसही आबू के प्रतिष्ठापक थे और श्री सीमन्धर स्वामी के मुख से संशोधित सूरिमन्त्र के आराधक थे। ३. जिनेश्वरसूरि - अणहिलपत्तन के भूपति दुर्लभराज की राज्यसभा में चैत्यवासी आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की थी और महाराजा से खरतर विरुद प्राप्त किया था। . ४. अभयदेवसूरि - नवाङ्गवृत्तिकारक और स्तम्भन पार्श्वनाथ मूर्ति के प्रकटकर्ता थे। ५. जिनवल्लभसूरि - इनके ग्रन्थ द्वादशकुलक के द्वारा वागड़ देश के १०,००० श्रावको को विधि-पक्ष का अनुयायी बनाया गया था और पिण्डविशुद्धि आदि प्रकरणों के निर्माता थे। ६. जिनदत्तसूरि - ६४ योगिनियों को और सिन्धु देश के पाँचों पीरों को अपने वश में करने वाले तथा युगप्रधान पदवीधारक थे। पुरोवाक् XIX Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004075
Book TitleKhartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages604
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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