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________________ चूरू, उदयपुर, देलवाड़ा, आबू - खरतरवसही, सौराष्ट्र में शत्रुंजय मानतुंग विहार, खरतरवसही, तलेटी मंदिर, गिरनार तीर्थ की खरतरवसही आदि, में पाटण गुजरात वाड़ी पार्श्वनाथ, खेतरवाड़ा जो कि खरतरपाटक का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है, अहमदाबाद में सोमजी शिवाजी मंदिर, दादासाहब की पोल, मध्यप्रदेश में उज्जैन, इंदौर, धार, सैलाना, रतलाम, महीदपुर, रायपुर, नागपुर आदि स्थानों पर खरतरगच्छ के समृद्ध श्रावकों द्वारा मंदिरों का निर्माण हुआ था और वे खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित थे । इस प्रकार देखा जाए तो भारत के प्रमुख - प्रमुख तीर्थ खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित थे और व्यवस्था भी इसी गच्छ के श्रावकों द्वारा होती थी। आज वर्तमान में इन तीर्थों की व्यवस्था और रक्षा चाहे किसी के हाथों में हो किन्तु पूर्व में तो ये खरतरगच्छ द्वारा ही प्रतिष्ठित और संरक्षित थे । विधि - चैत्य आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि ने शिथिलाचारि चैत्यवासियों की मान्यता - प्रतिपादन का पूर्णरूपेण निषेध / खण्डन महाराजा दुर्लभराज की राजसभा में किया और आगम-सम्मत प्रमाणों आधारों पर उनकी समस्त भ्रान्त धारणाओं का जड़ मूल से खण्डन किया । आचार्य जिनेश्वर केवल शास्त्र - विरुद्ध प्ररूपणाओं का ही निषेध कर रहे थे, आचार्य जिनवल्लभसूरि ने उस महत्त्वपूर्ण कार्य को आगे बढाया और उन चैत्यवासियों की मान्यताओं का प्रबल वेग से साथ खण्डन तो किया ही, साथ ही वैधानिक रूप से किस प्रकार से धर्म कार्य करना चाहिए? विधि - सम्म मार्ग भी दिखलाया। महाराज दुर्लभराज ने जो आचार्य जिनेश्वर को शास्त्रार्थ विजय के उपलक्ष में खरतर विरुद दिया था, उसका उन्होंने विरुद मानकर कभी भी प्रयोग नहीं किया । हाँ, सुविहित और संविग्न शब्दों का प्रकर्षता के साथ उपयोग किया। जिनवल्लभसूरि के समय में 'विधि' पर अत्यधिक जोर होने के कारण उनके अनुयायी विधिपक्ष के नाम से सम्बोधित किये जाने लगे। जैन परम्परा के प्रमुखतः समस्त क्रिया विधान भगवद् मूर्ति के समक्ष मन्दिरों में ही होते है । मन्दिर और मूर्तियाँ ही विधि - सम्मत न होकर परम्पराओं के अखाड़े हों तो स्वाभाविक है कि नवीन मन्दिरों का निर्माण करवाया जाए । जिनवल्लभसूरि के समय से ये मन्दिर भी विधिचैत्य के नाम से सम्बोधित होने लगे। प्रतिष्ठित मन्दिरों और मूर्तियों में भी 'विधि' शब्द का उल्लेख होने लगा । उदाहरण के तौर पर - लेखाङ्क १ 'विधि-चैत्य' (श्लोक ६५ एवं ७५), लेखाङ्क ३ सम्वत् ११७६ के लेख में 'वीरचैत्यविधौ', लेखाङ्क २० ‘महावीरविधिचैत्य - जावालीपुरे श्रीमहावीरविधिचैत्य', लेखाङ्क ३५ - 'विधिचैत्य', लेखाङ्क ३८ - 'प्रह्लादनपुरे श्रीयुगादिदेवविधिचैत्य', लेखाङ्क ४२-४३ - 'युगादिदेवविधिचैत्य', इस लेख में खरतरगच्छीय संघ को भी 'विधि संघ' शब्द से अभिहित किया है । लेखाङ्क ४६ 'श्री जैसलमेरुपार्श्वनाथविधिचैत्य' और 'श्रीपत्तने शान्तिनाथविधिचैत्य', लेखाङ्क ४७ ' श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथविधिचैत्य', लेखाङ्क ५४, ५५, ५६, ६६, ६७, ७९ और ८० में 'श्रीपत्तने शान्तिनाथविधिचैत्य' का उल्लेखनीय प्रयोग प्राप्त होता है । विधिचैत्य का प्रयोग १२वीं शताब्दी पुरोवाक् Jain Education International - For Personal & Private Use Only - XIII www.jainelibrary.org
SR No.004075
Book TitleKhartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages604
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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