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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
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वर्तमानरुप से जानता है..." इत्यादि जो कहा था वह भी आपके ग्रंथकार का अज्ञान ही बताता है। अर्थात् आपके ग्रंथकार सचमुच अज्ञानी हो ऐसा लगता है क्योंकि वर्तमानकाल की अपेक्षा में वे पदार्थ अतीत-और अनागत होने से विद्यमान न होने पर भी वे पदार्थ अतीतकाल में तो थे ही और अनागत काल में भी होंगे । इसलिए अतीत-अनागत संबंधित उस पदार्थो का साक्षात्कार होने के कारण सर्वज्ञ का त्रिकालविषयक ज्ञान मानने में कोई दोष नहीं है। (कहने का मतलब यह है कि, वर्तमानकाल में अतीतअनागत विषयक पदार्थ न होने पर भी अतीत या अनागत काल में तो वे पदार्थ विद्यमान थे और होंगे ही। इसलिए वह अतीत-अनागत कालीन पदार्थ असत् नहि कहे जाते। सर्वज्ञ जिस समय जो वस्तु जिस स्वरुप में हो उसको वैसे स्वरुप में जानता है। अतीत को अतीतरुप में, अनागत को भाविरुप में और वर्तमान को वर्तमान रुप में जानता है। पदार्थ जिस हालत में हो, वैसी ही हालत में केवलज्ञान में प्रतिभासित होता है।
इस तरह से समस्त बाधक प्रमाणो का निराकरण करने से सुंदर तरीके से उस बाधक प्रमाणो की असंभवता सिद्ध होने से सर्वज्ञ की सिद्धि निर्बाध हो जाती है। निर्बाध सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती है। जैसे सुखी मनुष्य को "मैं सुखी हूं" यह स्वसंवेदन से सुख का अनुभव होने से सुख की सत्ता सिद्ध होती है। इसलिए स्पष्ट रुप से कहा जा सकता है कि "सर्वज्ञ है" क्योंकि उसकी सत्ता में बाधक सभी प्रमाणो की असंभावना सुन्दर प्रकार से सिद्ध कर दी है। __अथ दिक्पटाः प्रकटयन्ति-ननु भवतु सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वात्सर्वज्ञसिद्धिः । किंत्वस्य कवलाहार इति न मृष्यामहे । तथाहि-केवलिनः कवलाहारो न भवति तत्कारणाभावात् न च कारणाभावे कार्यस्योत्पत्तिः अतिप्रसक्तेः । न च तत्कारणाभावोऽसिद्धः, E-57आहारादाननिदानभूते वेदनादिषट्के एकस्यापि तस्य केवलिन्यभावात् । तथाहि - न तावत्तस्य वेदनोत्पद्यते, तद्वेदनीयस्य:-58 दग्धरज्जुस्थानिकत्वात् । सत्यामपि वेदनायां न तस्य तत्कृता पीडा, अनन्तवीर्यत्वात् । वैयावृत्त्यकरणं तु भगवति त्रैलोक्यपूज्ये न संभवत्येवेति । ईर्यापथंE-59 पुनः केवलज्ञानावरणक्षयात् सम्यगवलोक-यत्यसौ । संयमस्तु -60 तस्य यथाख्यातचारित्रिणो निष्ठितार्थत्वादनन्तवीर्यत्वाञ्च नाहारकारणीभवति-61 । प्राणवृत्तिरपि तस्यानपवायुष्ट्वादनन्तवीर्यत्वाञ्चान्यथासिदैव । धर्मचिन्तावसरस्त्वपगतः, निष्ठितार्थत्वात् । तदेवं केवलिनः कावलिकाहारो बहुदोषदुष्टत्वान्न घटत इति ।
व्याख्या का भावानुवाद : अब प्रथम दिगंबर के मत बतावे है,
पूर्वपक्ष (दिगंबर): सर्वज्ञ के बाधक प्रमाणो की असंभवता होने से सर्वज्ञ की सिद्धि सुनिश्चित है। परंतु (हम जैसे कवलाहार करते है, वैसे) सर्वज्ञ को कवलाहार होता नहीं है। वह इस तरह से "केवलज्ञानि को कवलाहार होता नहि है, क्योंकि कवलाहार करने के कारण का अभाव है।" तथा कारण
(E-57-58-59-60-61) - तु० पा० प्र० प० ।
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