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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) ६५३ / १२७५ तार्किकादि जो ध्वनि, प्राकट्य और शक्ति को गुण नहीं मानते, उनके स्थान पर शब्द, धर्म और अधर्म को गुण मानते हैं । ध्वनि, प्राकट्य और शक्ति में गुणत्व की सिद्धि हो जाने से वह तार्किक मत निरस्त हो जाता है। शब्द में तो द्रव्यत्व पहले ही स्थापित किया जा चुका है । " धर्माधर्मो आत्मविशेषगुणौ" - यह तार्किकों का मत भी उपेक्षणीय ही है, क्योंकि आत्मा के विशेष गुणों में धर्माधर्म का लौकिक प्रयोग नहीं पाया जाता, किन्तु शब्दार्थ का निर्णय लौकिक प्रयोगों पर ही निर्भर रहता है, जैसा कि कहा गया है - " लोकप्रयोगगम्या हि शब्दार्थाः सर्व एव नः । " दूसरी बात यह भी है कि, धर्म को श्रेयः साधन माना गया है, अग्निहोत्रादि क्रिया को जैसे " अग्निष्टोमं जुहुयात् स्वर्गकामः”-इत्यादि वाक्यों में स्वर्गरूप श्रेय का साधन कहा गया है, वैसे आत्मा के किसी विशेष गुणो को श्रेय का साधन नहीं कहा गया है, अतः आत्मा के विशेष गुण में धर्मता नहीं मानी जा सकती । इसलिए जैन और प्राभाकरादि के मतानुसार परमाणु और अपूर्वादि में 'धर्म' शब्द की वाच्यता निरस्त समझ लेनी चाहिए, जैसा कि वार्तिककारने (श्लो० वा० पृ० १०५ मे) कहा है- अन्तःकरणवृत्तौ का वासनायां च चेतसः । पुद्गलेषु च पुण्येषु नृगुणेऽपूर्वजन्मनि । । प्रयोगो धर्मशब्दस्य न दृष्टो न च साधनम् । पुरुषार्थस्य ते ज्ञातुं शक्यन्ते चोदनादिभिः ।। सांख्याचार्य योगादि के अनुष्ठान उत्पन्न होनेवाली अन्त:करण की वृत्ति को धर्म कहते हैं- " श्रुतिस्मृतिविहितानां कर्मणामनुष्ठानाद् बुद्ध्यवस्थः सत्त्वावयव आशयभूतो धर्म इत्युच्यते" (युक्ति० पृ० ११२ ) । बौद्धगण विज्ञानग ज्ञानान्तर-जन्य वासना को धर्म मानते हैं । जैन गण असंखेय अवयववाले द्रव्यों को धर्माधर्म कहते हैं-" असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः” (तत्त्व० सू० ५/७) वैशषिकाचार्य धर्माधर्म को आत्मा के विशेष गुण मानते हैं- “धर्मः पुरुषगुणः ' (प्र०भा०पृ० १३८) । प्राभाकर अपूर्व के लिए 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया करते हैं । किन्तु 'धर्म' शब्द का प्रयोग पुद्गलादि में न देखा गया है और न उनमें विधि वाक्यों के द्वारा पुरुषार्थ-साधनता ही प्रतिपादित होती है । परिशेषतः यागादि क्रियाएँ ही धर्म हैं, जैसा कि भाष्यकार ने कहा है- " यागादिरेव धर्मः " ( शा० भा० पृ० १८) । लोक में अत्यन्ताप्रसिद्ध कार्य या अपूर्व का अभिधान लिङ्गादि करते हैं - यह भी एक प्राभाकरगणों का दुराग्रह मात्र है। जब तक प्रमाणान्तर से संज्ञा-संज्ञी का सम्बन्ध अवधारित न हो, तब तक कहीं भी लिङ्गादि शब्दों का प्रयोग सम्भव नहीं । यदि लिङ्गादि धर्म का बोध माना जाता है । तब अन्योऽन्याश्रय होता है, अतः लिङ्गादि में अपूर्वाभिधायकत्व सम्भव न होने के कारण अपूर्व में धर्म पद- वाच्यता उपपन्न नहीं । प्राभाकर मत - सभी शब्दों की कार्यरूप अर्थ में ही शक्ति होती है, क्योंकि बालकों की स्तनपानादि कर्तव्य अर्थों में ही “ममेदं कार्यम्”-इस प्रकार कार्यता के ज्ञान से स्वतन्त्र प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः 'गामानय' - इस प्रकार के प्रवर्तक वाक्य को सुनते ही कार्यार्थ में प्रवृत्त हुए व्युत्पन्न पुरुष को देख कर पार्श्वस्थ बालक यह कल्पना करता है कि 'नूनमेतस्माद्वाक्यादेवैतस्य कार्यबोधो जात:' । उसके पश्चात् आवाप और उद्वाप की सहायता से लिङ्गादि पदों में इतरार्थान्वित कार्य की वाचकता निश्चित होती है । इस प्रकार लौकिक कार्य में लिङ्गादि का शक्ति ग्रह हो जाने पर “स्वर्गकामो यजेत”-इत्यादि वैदिक वाक्यों को सुनकर लिङ्गादि पदों की यागादि क्रिया से भिन्न अपूर्व या नियोग में संगतिग्रहण होता है, क्योंकि यागादि क्रियाएँ क्षणभङ्गुर होने के कारण स्वर्ग-जनक नहीं हो सकती, अत एव तदर्थक लिङ्गादि का ‘स्वर्गकाम' पद के साथ समभिव्याहार नहीं हो सकता । परिशेषतः क्रिया से भिन्न अपूर्वात्मक कार्य लिङ्गादि का मुख्य अर्थ और क्रियारूप कार्य में लक्षणया प्रयोग स्थिर होता है । प्राभाकर-मत-खण्डन-कार्यभूत अर्थ में ही शब्दों की व्युत्पत्ति होती है - ऐसा नियम संगत नहीं, क्योंकि जिस व्युत्पस्सु बालक ने किसी सेठ के बालक का जन्म देखा है और उसकी सूचना देनेवाले सन्देश वाहक के साथ चल पडा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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