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________________ ६३४ / १२५७ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) विषय में प्रश्न और उत्तर हो सकते हैं । प्रकर्ष - विशिष्ट चन्द्रोपलक्षित ही चन्द्र पदार्थ है - ऐसा उत्तर सुस्थिर हो जाता है, अतः 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' - इत्यादि वाक्य विज्ञानादि - विशिष्ट आत्मस्वरूप के ही समर्थक हैं, अखण्डार्थक नहीं । विज्ञानम् आनन्द ब्रह्म-इन पदों का सामानाधिकरण्य 'मधुरो गुडः ' के समान भेद - सहिष्णु अभेद को लेकर उत्पन्न हो जाता है । दूसरी बात यह भी है कि, “स एको ब्रह्मण आनन्दः " ( तै० उ० २ / ८) एवं " आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्" ( तै० उ० २/४) इत्यादि श्रुतियाँ भी आनन्द और आत्मा के परस्पर भेद का प्रतिपादन करती हैं, अतः विज्ञान, आनन्द और आत्मा-तीनों परस्पर भिन्न पदार्थ हैं । विज्ञान की नित्यता का उपपादन कभी नहीं हो सकता, क्योंकि 'अवेदयन्नेवाहमियन्तं कालमस्वाप्सम्’-इस प्रकार सुषुप्ति में विज्ञानाभाव का अनुसन्धान विज्ञान को अनित्य सिद्ध कर रहा है । 'सुखमहमस्वाप्सम्’-इस प्रकार सुखानुभव का अनुसन्धान तो सुषुप्ति में अखिल दुःख की निवृत्ति का ही गमक है, अन्यथा कामिनी-सम्भोगादिरूप स्वल्प सुख का विलोप हो जाने से प्रबुद्ध व्यक्ति को दुःख की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जिसने ब्रह्मरूप निरतिशयानन्द का अनुभव कर लिया है, उसे एक क्षुद्रतम सुख का परिक्षय हो जाने से दुःखोद्भव नहीं हो सकता । अनुभूत सुख का यदि विस्मरण माना जाता है, तब 'सुखमहमस्वाप्सम् ' - इस प्रकार सुखानुभव के अनुसन्धान से विज्ञान में नित्यता क्योंकर स्थापित होगी ? फलतः आत्मा देह, इन्द्रिय, विज्ञान और सुख से भिन्न सिद्ध होता है । 'यह आत्मा सभी शरीरों में एक ही है'- ऐसा जो अद्वैतवेदान्ती मानते हैं, वह भी अनुपपन्न है, क्योंकि यदि सभी शरीरों में आत्मा एक ही है, तब उसके अदृष्ट से जनित सुख-दुःखादि समान रूप से सभी शरीरों में प्रतीत होंगे, किसी शरीर में सुख, किसी में दुःख - ऐसे वैषम्य का दर्शन नहीं होना चाहिए एवं सभी शरीरों के सुख-दुःखादि का अनुसन्धान सभी शरीरों में होना चाहिए। सभी को सभी शरीरों के सुख-दुःखादि का अनुसन्धान प्रत्येक शरीर में होता है - - ऐसा नहीं मान सकते, अन्यथा जैसे एक शरीर के पेर में चुमा काँटा निकालने के लिए उसी शरीर का हाथ सक्रिय हो जाता है, वैसे ही दूसरे शरीरों के हाथों को भी उधर सहसा प्रवृत्त हो जाना चाहिए । इन्द्रियों के भेद से अनुसन्धान नहीं हो पाता ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि विभिन्न इन्द्रियों की अनुभूतियों का अनुसन्धान पाया जाता है - 'योऽहमश्रौषम् ' स एव पश्यामि ।' देह-भेद भी अनुसन्धान में बाधक नहीं होता, क्योंकि कतिपय 'जातिस्मर' कहे जानेवाले व्यक्ति अपने विभिन्न शरीरों की सत्य - सत्य घटनाएँ सुनाते हुए पाये जाते हैं । जीव-भेद से अनुसन्धान का न होना उचित ही है, क्योंकि जीव ही आत्मा कहलाता है, आत्मा से भिन्न कभी जीव नहीं होता । ' तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति' (मुण्डको० ३/१/१) यह श्रुति भी न तो ब्रह्म से जीव का भेद कह सकती है और न ब्रह्म से जीव का अभेद, अन्यथा प्रथम पक्ष में अद्वैतवाद की हानि होगी और द्वितीय पक्ष में जीव-भेद सिद्ध नहीं होगा । काल्पनिक भेद भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उससे काल्पनिक व्यवस्था का ही निर्वाह हो सकता है, परमार्थिक व्यवस्था का नहीं । काल्पनिक पदार्थ से प्रामाणिक कार्य का सम्पादन मानने पर शुक्तिरजतादि से भी वास्तविक कटक, मुकुटादि आभूषणों का निर्माण होना चाहिए । अतः " एको देवः सर्वभूतेषु गूढ : " ( श्वेता० ६ / ११), "एक एव च भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः " (त्रि ता. ५/१२) इत्यादि अद्वैतप्रतिपादक श्रौत और स्मार्त वाक्य प्रमाणान्तर से विरुद्ध होने के कारण अपने यथाश्रुतार्थ में वैसे ही प्रमाण नहीं माने जा सकते, जैसे कि एक हजार वर्षों में सम्पन्न होनेवाले सत्र कर्म के प्रतिपादक वाक्य अपने यथाश्रुतार्थ में प्रमाण नहीं माने जाते, क्योंकि हजार वर्ष तक कोई मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता कि उस सत्र का अनुष्ठान सम्पन्न करे, अत एवाचार्यो ने वहाँ 'सहस्र संवत्सर' का अर्थ 'सहस्र दिवस' किया है । फलतः आत्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न सिद्ध होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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