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________________ ६१० / १२३३ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ प्राभाकर तर्क का निरास - अर्थापत्ति की अनुमानता के निराकरण में प्रभाकर - प्रस्तुत तर्क अत्यन्त उपहासास्पद है, क्योंकि गृह में अभाव देखकर देवदत्त के जीवन में यदि सन्देह उपस्थित हो गया है, तब किसी विश्वास पात्र पडोंसी से पूछ- जाँच कर निर्णय कर लीजिए अथवा देवदत्त की धर्मपत्नी के कण्ठ- सूत्र और हाथ में चूडी आदि जीवन-चिह्नों को देख लीजिए । यदि देवदत्त के मरणादि का कोई सूचक नहीं, तब उसके जीवन में सन्देह क्यों होगा ? दूसरी बात यह भी है कि, सन्दिग्ध जीव से बहिर्भाव की कल्पना (अर्थापत्ति) भी नहीं हो सकती, क्योंकि देवदत्त की मरणाशङ्का में 'देवदत्तो बहिरस्ति' - ऐसा ज्ञान कैसे होगा ? 'यस्माज्जीवति वा ? नो वा ? तस्माद् असौ बहिरस्ति'-ऐसी कल्पना प्रभाकर गुरु को छोड कर ओर कौन कर सकता है ? (श्री चिदानन्द पण्डित भी ऐसा ही कहते हैं - यदि गृहाभावदर्शनेन जीवनं सन्दिग्धम्, तर्हि जीवनासाधारणधर्मान्तरदर्शनादेव बहिर्वृत्तितया जीवनं निश्चेतव्यम्, न च तदस्ति, अतः कथं सन्दिग्धाज्जीवनाद् बहिर्वृत्तित्वेन जीवननिश्चयः ? कथञ्च 'यस्माद् देवदत्तो जीवति वा ? न वा ? तस्माद् बहिरस्ति' - इति कल्पनीयम् ? (नीति० पृ० १५६) । यदि कहा जाय कि अर्थापत्ति के प्रभाव से सन्दिग्ध जीवन भी बहिरस्तित्व का आक्षेपक हो जायगा, तब तो सभी पदार्थों का अदर्शन होने पर उनके नाश की जब शङ्का हो, तब उनके अन्यत्रास्तित्व का निश्चय कर आप अपना हृदय शीतल कर सकते हैं । फलतः यह सिद्ध हो गया कि सन्दिग्ध पदार्थ अर्थापत्ति का कारण नहीं हो सकता । अतः अर्थापत्ति की हमारे द्वारा प्रदर्शितविधा ही निरवद्य है । वह अर्थापत्ति दो प्रकार की होती है - (१) दृष्टार्थापत्ति और (२) श्रुतार्थापत्ति । उनमें से दृष्टार्थापत्ति ऊपर दिखाई जा चुकी है । जहाँ अधूरे वाक्य की अन्वयोपपत्ति के लिए अपेक्षित शब्द का अध्याहार किया जाता है, उसे श्रुतार्थापत्ति कहते हैं। जैसे- 'द्वारं द्वारम् ' - इस वाक्य में अन्वय- सिद्धि के लिए किसी शब्द से गम्य आवरणादिरूप दूसरा अर्थ उपस्थित होना चाहिए - यह एक साधारण प्रमाण है । वैसे श्रुत शब्द का अनुपलम्भरूप बाधक के द्वारा बाध हो जाने पर अश्रुत शब्द से गम्य आवरणादि अर्थ की कल्पना करनी होगी । उसमें भी केवल अर्थ की नहीं, वाचक शब्द के साथ ही उसकी कल्पना में तत्पर पुरुष 'शब्द से ही अर्थ का बोध होता है' ऐसा समझ कर लाघवात् 'आव्रियताम्' - शब्दमात्र की कल्पना करता है, यह शब्द-कल्पना ही श्रुतार्थापत्ति है । (श्री चिदानन्द पण्डित ने भी कहा है- "द्वारं द्वारमित्येकवाक्यार्थ प्रतिपत्त्यर्थमुच्चरितेन द्वारपदेन प्रतिपन्नस्य द्वारपदार्थस्य सान्वयप्रतिपादनाय योग्येनाकांक्षितेनावरणाद्यर्थान्तरेण श्रुतशब्दविषयेणाश्रुतशब्दविषयेण वा भवितव्यमिति साधारणप्रमाणस्य श्रुतशब्दविषयत्वेन तादृशार्थान्तराभावग्राहिणानुपलम्भेन सह विरोधादाकाङ्क्षितस्य योग्यस्यावरणाद्यर्थान्तरस्याश्रुतशब्दविषयत्वेन कल्पनं श्रुतार्थापत्तिः (नीति० पृ० १६५-६६ ) ।" प्रभाकर गुरु का जो कहना है कि, उक्त स्थल पर आवरणादि अर्थ की ही कल्पना की जाती है, शब्द की नहीं, अतः श्रुतार्थापत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं । वह उनका कहना उचित नहीं, क्योंकि शब्दोपस्थापित अर्थ का शाब्द अर्थ के साथ ही अन्वय होता है - यह ऊपर कहा जा चुका है (चिदानन्द पण्डित ने भी यही समाधान किया है“आवरणादिशब्दगम्येनावरणाद्यर्थेन विनाऽनुपपत्तेः, शाब्दस्य शाब्देनैवान्वयात् " (नीति. पृ. १६६) । दूसरी बात यह भी है कि, यदि अधूरे वाक्य की पूर्ति के लिए केवल अर्थ की ही कल्पना की जाती है, तब "सौयं चरुं निर्वपेद् ब्रह्मवर्चस्कामः” (तै.सं. १ / ३ / २) इस वाक्य से विहित सौर्य इष्टि में 'प्रकृतिवद्विकृतिः कर्त्तव्या ' - इस अतिदेश वाक्य से प्राप्त “अग्नये त्वा जुष्टं निर्वपामि" (तै.सं. २/ २ / ३६) इस मन्त्र में प्रकृत सूर्य देवता का अन्वय करने के लिये 'अग्नये' पद के स्थान पर 'सूर्याय' पद का ऊह जो (जै० सू० ९/३/१) में सिद्धान्तित है, वह असंगत हो जायगा, क्योंकि आपकी रीति से सूर्यरूप अर्थ का अध्याहार कर लेने मात्र से अन्वयार्थ सम्पन्न हो जाता है, शब्द - कल्पना की आवश्यकता क्या ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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