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________________ ६०८/ १२३१ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ समाधान-तार्किकों की बुद्धि इस सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं कर पा रही है, उन्हें यह समझाना है कि, उक्त स्थल पर दो प्रमाणों का विरोध है, इससे प्रसिद्ध अनुमान भंग नहीं होता और देवदत्त के बहिःसत्त्व का अनुमान भी नहीं किया जा सकता। यह जो कहा गया कि दो विरुद्ध ज्ञानों में से एक नियमतः अप्रमाण होता है, वह नियम 'इदं रजतम्' और 'नेदं रजतम्'-के समान असाधारण प्रमाणों का विरोध होने पर ही लागू होता है । किन्तु असाधारण प्रमाण से बाधित होने पर भी साधारण प्रमाण में अप्रामाण्य प्रसक्त नहीं होता । (चिदानन्द पण्डित भी ऐसा ही कहते हैं-'ननु प्रमाणं चेन्न विरोधः', विरुद्धश्चेन्न प्रमाणम् । तन्त्र, असाधारणविषयस्यासाधारणविषयेण विरोधादप्रामाण्यम् 'इदं रजतम्', 'नेदं रजतम्'-इतिवत् । साधारणविषयस्य तु प्रामाण्यं विरोधेऽपि विषयान्तरे व्यवस्थितम् । यथात्रैवोदाहरणे 'देवदत्तो गृहे वा बहिर्वा संस्थितः', 'गृहे नावस्थितः-इति प्रमाणद्वयम् । न च नानयोर्विरोधः, गृहे नावस्थितः, गृहे बहिर्वावस्थित इति विरुद्धविषयत्वात्। न चाप्रामाण्यम्, इदं रजतं नेदं रजतमितिवत् सर्वथा विषयापहाराभावात्। (नीति० पृ० १५८) ।' यह जो कहा गया कि, उक्त अर्थापत्ति-स्थल पर सन्दिग्ध देश-विशेष का ही बाध होता है, जीवनविषयक प्रमाण का नहीं, वह उचित नहीं, क्योंकि अनुमान के द्वारा देवदत्त के जीवित होने का ज्ञान हो जाने पर उसकी अवस्थिति का सामञ्जस्य करने के लिए देश-सामान्य का सम्बन्ध भी ज्ञातव्य होगा । देश-सामान्य का अर्थ यदि देशगत सामान्य (जाति) किया जाता है, तब देशगत देशत्वरूप सामान्य का देवदत्त के साथ सम्बन्ध हो जाने पर देवदत्त भी देश हो जायेगा। अतः देश सामान्य का अर्थ होगा अनियत देश, फलत: ‘असौ क्वचिज्जीवति' - इस प्रकार अनियत देश का सम्बन्ध जीवित पुरुष के साथ अवगत होगा । देश सामान्य से गृहदेश और बहिर्देश-ये दो विशेष देश ही गृहीत होते हैं, अतः देवदत्तः गृहे बहिर्वा जीवति-इस प्रकार सन्दिग्ध देश उक्त दो देशों में से किसी एक विशेष देश का सम्बन्ध जीवन के साथ पर्यवसित होगा, उनमें गृहरूप एक विशेष देश का अनुपलब्धि से बाध हो जाने पर अन्य (बहिर्देश) का ग्रहण होने से पूर्व निराधार जीवन विषयक प्रमाण का अवश्य ही बाध होता है। इस प्रकार बहिर्देश सम्बन्ध से पूर्व गृहाभाव-ज्ञानगत सूक्ष्म प्रतिरोध दशा को न जान पाने के कारण तार्किक लोग कह देते हैं कि, उक्त स्थल पर सन्दिग्ध देश का ही बाध होता है, जीवनप्रमाण का नहीं। ___ यह जो कहा है कि, प्रसिद्धानुमान भी अर्थापत्ति ही हो जायगा, वह भी संगत नहीं, क्योंकि वहाँ पर्वत में अग्नि-प्रापक साधारण प्रमाण कौन है ? व्याप्ति ग्राहक प्रमाण को ही जो पर्वत में अग्नि-प्रापक कहा गया, उसके मूल में प्रभाकर-मत के संस्कार विद्यमान हैं, क्योंकि प्रभाकर का यह मत विगत पृ. ५८ पर दिखाया जा चुका है कि, व्याप्ति-ग्रहण-काल में ही पर्वत के साथ भी अग्नि का सम्बन्ध अवगत हो जाता है, किन्तु जो व्यक्ति अभी महानस में ही व्याप्ति का ग्रहण कर रहा है, पर्वत तक पहुँचा ही नहीं, वह पर्वत में अग्निमत्ता का ज्ञान कैसे कर लेगा ? अनुमाननिरूपण के अवसर पर उक्त प्रभाकर-मत का निराकरण किया जा चुका है । यह जो कहा गया कि पर्वत में दृश्यमान धूम अपने कारणीभूत अग्नि का आक्षेप कर सकता है, उसकी क्या आवश्यकता ? 'धूमोऽग्निमनुमापयति'-ऐसा ही कहना चाहिए, अतः पर्वत में अग्नि का प्रापक अनुमान ही साधारण प्रमाण है, अनुमान का अर्थापत्ति में समावेश नहीं हो सकता । पर्वत के ऊर्ध्व (शिखर) भाग में अग्नि का बाध होने पर उसके निचले भाग में अग्नि की कल्पना को अर्थापत्ति ही माना जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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