SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तिर्नायुक्ता । एतेन " लङ्घनाभ्यास" इत्यादि निरस्तं, लङ्घनस्यासहजधर्मत्वात्, स्वाश्रये च विशेषानाधानात्, प्रत्युत तेन सामर्थ्यपरिक्षयादिति । ३६ / ६५९ व्याख्या का भावानुवाद : अब मीमांसको की मान्यता खंडन करते है जैन : ( उत्तरपक्ष ) : आपने पहले सर्वज्ञ के निषेध में "उस सर्वज्ञ का ग्राहक प्रमाण नहीं है ।" ऐसा हेतु कहा था वह सत्य नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञसाधक अनुमानो का सद्भाव है ही । कहने का मतलब यह है कि आपने (मीमांसकोने) पहले सर्वज्ञसाधक प्रमाण का अभाव होने से सर्वज्ञ जैसी कोई व्यक्ति नहीं है। ऐसा जो कहा था वह सत्य नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ साधक अनुमान प्रमाण तो है ही । वह अनुमानप्रमाण इस अनुसार से है - I "ज्ञान का तरतमभाव क्रमिकविकास कहीं विश्रांति = पूर्णता को प्राप्त करता है । क्योंकि वह तरतमशब्द से वाच्य है । अर्थात् उसका क्रमिकविकास होता है। जैसेकि, परिमाण, । परमाणु से क्रमिक विकास करते करते परिमाण आकाश में अपनी पूर्णता को अर्थात् महापरिमाण अवस्था पे पहुंच जाता है। उसी ही तरह से ज्ञान का क्रमिक विकास होते होते पूर्णता तक पहुंचता है, वह सर्वज्ञता है । ज्ञान का क्रमिकविकास असिद्ध नहीं है, क्योंकि जगत में प्रत्येक जीवो की प्रज्ञा = प्रतिभा तथा मेधा धारणाशक्ति आदि गुणो का विकास क्रमिक ही दिखता है । किसीके प्रज्ञा - मेधादि गुणो का विकास कम है, तो किसीका ज्यादा है। इसलिए ज्ञानादि गुणो का विकास जगत के जीवो में क्रमिक दिखता है। इसलिए जैसे परमाणु में रहा हुआ परिमाण विकास पाते पाते परम प्रकृष्ट अवस्था से आकाश में देखनेको मिलता है। वैसे ज्ञानादि गुणो का विकास होते होते अवश्य सर्व अंतिमप्रकर्ष होना ही चाहिए और उस जगतवर्ती सर्ववस्तुओ का प्रकाशक ज्ञान की जहां विश्रांति = पूर्णता है, वह भगवान सर्वज्ञ है । अर्थात् जिसमें सर्ववस्तुओ का प्रकाशक ज्ञान पूर्णता तक पहुंचा है, वह सर्वज्ञ भगवान है। = = शंका : अग्नि से गरम हुए पानी में उष्णता की तरतमता होने पर भी वह पानी उष्णता का सर्व अंतिम प्रकर्ष जिसमें है, उस अग्नि जैसा उष्ण तो बनता दिखता ही नहीं है। इसलिए जिसका क्रमिकविकास होता है उसकी पूर्णता होती है। यह आपका नियम व्यभिचारी बनता है। क्योंकि पानी में तरतमता से उष्णता होने पर भी अग्नि जैसी उष्णता की पूर्णता पानी में नहि आती है। समाधान : पदार्थ के स्वाभाविक धर्म ही अभ्यास से पूर्णता को प्राप्त करते है । परन्तु जो धर्म अन्य सहकारीकी अपेक्षा से उत्पन्न होता है, वह पूर्णता को प्राप्त करे ही, वैसा नियम नहीं है । पानी में आई हुई उष्णता सहज नहीं है, परन्तु अग्नि नाम के सहकारी के कारण से आती है। जब कि, सुवर्ण में पुटपाक की प्रक्रिया से आती हुई विशुद्धि सुवर्ण का सहजधर्म होने के कारण पूर्णता को प्राप्त करता है । पानी में रही हुई उष्णता पानी का सहजधर्म न होने से किस तरह से पूर्णता पानी का अत्यंत ताप देने से पानी नष्ट हो जाता है । परमप्रकर्ष को प्राप्त करे। उल्टा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy