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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६
शङ्का-प्रभाकर-सम्मत जो अन्विताभिधान वाद है कि, सभी पद इतर पदार्थ से अन्वित स्वार्थ का अभिधान करते हैं, शुद्ध अर्थ का नहीं । 'गामानय' - इस प्रकार प्रथम वार श्रवण के द्वारा यही अवगत होता है कि 'गो' पद उसी गौ का बोधक है, जो आनीयमान है और 'आनय' पद उसी आनयन क्रिया का वाचक है जो कि गौ में हो रही है । अतः उसी के अनुसार पदों को ही अन्वय-विशिष्ट अर्थ का वाचक मानना न्यायोचित है, शुद्ध अर्थ का बोधक नहीं । कथित आवाप और उद्वाप के द्वारा जो पदार्थों का विविक्तावधारण होता है, वह अन्वय को छोड़कर नहीं, अतः अन्वितार्थ में पदों की जो शक्ति गृहीत होती है, उसका त्याग कभी नहीं हो सकता । तब क्या पदों के द्वारा शुद्ध पदार्थों का बोध नहीं होता ? इस प्रश्न का उत्तर है कि, पदों से शुद्धार्थ का बोध होता है । पद अपने पदार्थ का स्मरण कराते हैं, किन्तु उतने से ही विरत नहीं हो जाते, अपने स्मारित अर्थ का इतरार्थान्वय के साथ अभिधान करके ही विरत होते हैं, अतः अन्वितरूप वाक्यार्थ पदों का अभिधेय ही होता है, पदार्थों के द्वारा लक्षणीय नहीं, क्योंकि यदि पदार्थों के द्वारा वाक्यार्थ का बोध माना जाता है, तब प्रमाणान्तर से ज्ञात पदार्थों का भी वाक्यार्थ में अन्वय होना चाहिए किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता ।
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समाधान- वह प्रभाकर का मत गौरव दोष के कारण ही हेय है, क्योंकि हमारे (भाट्टाभिमत) अभिहितान्वयवाद में पदार्थ स्मृति-सिद्ध और वाक्यार्थं लक्षणा सिद्ध है, अतः वाक्य की वाक्यार्थ में शक्त्यन्तर मानने की कोई आवश्यकता नहीं और आपके मतानुसार शक्ति कल्पना में आरम्भ से ही गौरव प्रसक्त हो रहा है । दूसरी बात यह भी है कि पदगत शक्ति की अपेक्षा पदार्थगत शक्ति की कल्पना में लाघव है, क्योंकि एक ही गमनरूप अर्थ के 'गमनम्', 'चलनम्' इत्यादि अनेक पद वाचक होते हैं, अतः पदार्थ को वाक्यार्थ का बोधक मानने में जो कार्य पदार्थगत एक लक्षणा शक्ति से चलता है, उसके लिए पदों को वाक्यार्थ-बोधक मानने में अनेक पदों में अनेक शक्तियाँ माननी होंगी - इससे अधिक ओर गौरव क्या होगा ? पदार्थ - शक्ति - पक्ष में गमनगत शक्ति से ही गमन के पर्यायार्थों का भी अन्वय-बोध हो जाता है, किन्तु पदशक्तिपक्ष में गमनार्थक अनन्त पदों की अनन्त शक्तियाँ माननी पडेगी । अन्विताभिधान- पक्ष में यह भी एक महान् दोष है कि, जब एक वाक्य का घटक प्रत्येक पद इतरार्थान्वित स्वार्थ का बोधक है, तब वाक्य घटक प्रत्येक पद से वाक्यार्थ-बोध होना चाहिए एवं प्रथम पद के श्रवण-काल में इतर पद श्रुत ही नहीं होते, इतरार्थान्वय की उपस्थिति ही नहीं होती, तब वह प्रथम पद किस अर्थ का बोधक होगा ?
यह जो आक्षेप किया गया है कि, पदार्थों में अन्वय-बोधकत्व मानने पर शब्देतर प्रमाणों से उपस्थित अर्थों का भी अन्वय प्रसक्त होता है । वह कहना संगत नहीं, क्योंकि आप (अन्विताभिधानवादी) के मतानुसार भी 'गां बधान' - ऐसा कहने पर प्रत्यक्षतः दृश्यमान रस्सा तोडा कर भागते हुए अश्व का शाब्दबोध में अन्वय क्यों नहीं होता ? इस प्रश्न के उत्तर में विवश होकर आपको कहना होगा कि अश्व की शब्दतः उपस्थिति नहीं, अतः उसका शाब्द बोध में अन्वय नहीं होता । उसी प्रकार हम भी यही उत्तर दे देंगे कि शब्देतर प्रमाण से उपस्थित पदार्थ शब्दतः उपस्थित न होने के कारण वाक्यार्थ में अन्वित नहीं होता । वहाँ पर भी हमें (भाट्टगणों को) किसी अधिक वस्तु की कल्पना नहीं करनी पडती, अतः हमारा अन्वय - प्रकार ही
लघुतर 1
यहाँ पर आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि - इन तीनों को शाब्द बोध का कारण माना जाता है । 'गौः, अश्वः, पुरुषः, हस्ती - इत्यादि निराकांक्ष पदों के द्वारा शाब्द बोध नहीं होता, अतः आकांक्षा को शाब्द बोध में कारण मानना आवश्यक है । उसी प्रकार 'अग्निना सिञ्चति' - इत्यादि अयोग्य पदों के द्वारा भी अन्वय-बोध नहीं होता, अतः योग्यता हैन के विषय में हमारा मत है कि, पदार्थों में सन्निहितत्वेन बोधितत्व होना ही सन्निधि पदार्थ है, अतः पदार्थों में सन्निहितत्वाभाव और शब्द-बोधितत्वाभाव- इन दोनों अवस्थाओं में सन्निधि का अभाव माना जाता है । भिन्नभिन्न कालों में उच्चारित 'गाम्' और 'आनय'- इन दो पदों में सन्निहितत्व न होने के कारण शाब्दबोध नहीं होता और 'गां
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