SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 622
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम् ) ५९५ / १२१८ समाधान-तब भी सन्देहावस्थ बाधितविशेषणत्व नाम का पक्षदोष ही माना जा सकता है, सन्देह मात्र को लेकर उसे विजातीय दोषान्तर नहीं मान सकते, अन्यथा सन्दिग्धासिद्धादि को भी अतिरिक्त दोष मानना पडेगा । अथवा 'संशयहेतुरनैकान्तिकः ' - ऐसा अनैकान्तिक का लक्षण माना जा सकता है और संशय होता हैसाधारण या असाधारण धर्म के दर्शन अथवा विप्रतिपत्ति वाक्य से, जैसे कि स्थाणु और पुरुष के ऊर्ध्वत्वरूप साधारण धर्म को देख कर संशय होता है - स्थाणुर्वा ? पुरुषो वा ? पृथिवीगत गन्धवत्त्वरूप असाधारण धर्म के ज्ञान से पृथिवी नित्या ? अनित्या वा ? ऐसा संशय होता है । वादिगणों के विप्रतिपत्ति ('शब्दो नित्यः श्रावणत्वात्', शब्दो अनित्यः, कार्यत्वात् - इस प्रकार के विरुद्धार्थक) वाक्यों को सुनकर शब्दो नित्यो ? अनित्यो वा ? इस प्रकार का संशय हो जाता है । सत्प्रतिपक्ष-स्थल पर यही विप्रतिपत्तिहेतुक संशय प्राप्त होता है, अतः अनैकान्तिक में प्रकरणसम का अन्तर्भाव देना चाहिए । (जैसा कि आचार्य दिङ्नाग कहते हैं- “ अनित्यः शब्दः, कृतकत्वाद्, घटवत् । नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववदिति उभयोः संशयहेतुत्वाद् द्वावप्येतावेकोऽनैकान्तिकः समुदितावेव" (न्या०प्र० पृ० ५) । पार्थसारथि मिश्र ने भी कहा है- " अनैकान्तिकत्वं द्विविधम्- सव्यभिचारं सप्रतिसाधनं च । अप्रत्यक्षो वायुर्द्रव्यत्वे सत्यरूपत्वात् । प्रत्यक्षो वायुर्महत्त्वे सति स्पर्शवत्त्वादिति सप्रतिसाधनत्वादुभयमप्यनिर्णायकं संशयहेतुः, अगृह्यमाणबलाबलत्वादुभयोः" (शा०दी०पृ० ६५) । कथित सत्प्रतिपक्ष के एक-एक हेतु से प्रतिकूल अर्थ की सिद्धि करने पर उसका नाम विरुद्धाव्यभिचारी पडता है, जो कि एक अवान्तर जाति है, जैसे- क्षित्यादिकं सकर्तृकम्, कार्यत्वाद्, घटवत्' तथा ' क्षित्यादिकम्, ईश्वरकर्तृकं न भवति, कार्यत्वाद्, घटवत्' - यहाँ पर कार्यत्व हेतु घटादि में सकर्तृकत्व और ईश्वरकर्तृकत्वाभाव-इन दोनों से अव्यभिचरित है । सकर्तृकत्व के माध्यम से जो लोक ईश्वर की सिद्धि करते हैं, उनके लिए ईश्वरकर्तृकत्वाभाव विरुद्ध है, अतः ‘कार्यत्व' हेतु विरुद्धाव्यभिचारी है । इस प्रकार तार्किकादि प्रयुक्त पक्ष हेतु और दृष्टान्तों के द्वारा विरुद्धार्थ की सिद्धिविवक्षित होने पर हमारी विरुद्धाव्यभिचारिता अभिनीत हो जाती है । आचार्य कुमारिल भट्ट (श्लो०वा०पृ० ३७ : पर) सभी सत्प्रतिपक्षों को विरुद्धाव्यभिचारी कहा है- यत्राप्रत्यक्षता वायोररूपत्वे स्पर्शात् प्रत्यक्षता वाऽसौ विरुद्धाव्यभिचारिता ।। । श्री चिदानन्द पण्डित की तो विस्पष्ट घोषणा है कि " प्रकरणसमत्वं तु दूषणान्तरं न सम्भवति” (नीति० पृ० १४२) । अतः प्रकरणसम को किसी भी नाम से अभिहित किया जाय ? यह सर्वथा निश्चित है कि वह कोई पृथक् हेत्वाभास नहीं । अतः यह सिद्ध हो गया कि 'बाधितविशेषणक' नाम के पक्षाभास या 'अनैकान्तिक' नाम के हेत्वाभास में सत्प्रतिपक्ष समा जाता है, दूषणान्तर नहीं है। श्री भासर्वज्ञाचार्य ने जो (न्या० भू० पृ० ३१० पर) "स्वपक्षपरपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसमः " - ऐसा लक्षण करके कहीं से एक दुर्लभ उदाहरण खोज कर (न्या० भू० पृ० ३१९ पर) प्रस्तुत किया है - " अनित्यः शब्दः, पक्षसपक्षयोरन्यरत्वात्' सपक्षवत् ।" यहाँ पर 'शब्दो नित्यः, पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात् ' - ऐसा भी कहा जा सकता है । वह अयुक्त है, क्योंकि अनित्यत्व को साध्य बनाने पर 'पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात्' का अर्थ होगा- 'शब्दघटयोरन्यतरत्वात्' और नित्यत्व को साध्य बनाने पर 'पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात्' का अर्थ 'शब्दाकाशयोरन्यतरत्वात्' होगा, अतः दोनों पक्षों में हेतु का समान त्रैरूप्य क्योंकर कहा जा सकेगा ? (तार्किकप्रवर श्री वरदराज अपने एकदेशी भूषणकार की प्रकरणसमता का निराकरण करते हुए कहते हैं- " तदिदं तावदसम्भवि लक्षणम्, न ह्येकस्यैव हेतोरुभयत्रापि त्रैरूप्यं सम्भवति, नित्यत्वे साध्ये गगनं सपक्षः, इतरत्र तदेव विपक्षः । न त्वेक एव हेतुः सपक्षे तत्र वर्तते, विपक्षाच्च Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy