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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम् ) ५८७ / १२१० वह कहना युक्त नहीं, क्योंकि तर्क भी अत्यन्ताप्रसिद्ध अर्थ को सिद्ध कर देने में कभी सक्षम नहीं होता, अतः अनुकूल तर्क के रहने पर भी व्यतिरेकी अनुमान के साध्याप्रसिद्धि या अप्रसिद्ध विशेषणता दोष का परिहार नहीं किया जा सकता। शङ्का : जैसे केवलान्वयी प्रकरण में श्री गङ्गेशोपाध्याय ने अभिधेयत्वादि केवलान्वयी धर्मों के अभाव की प्रसिद्धि में सन्देह उठाया है - " अभिधेयत्वं कुतोऽपि व्यावृत्तम्, धर्मत्वाद्, गोत्ववत्" (केवलान्वयी पृ० १३४७), वैसे ही श्री चित्सुखाचार्य ने वेद्यत्वाभावात्मक स्वप्रकाशत्व की प्रसिद्धि - "वेद्यत्वं किञ्चिन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि, धर्मत्वात्, शौक्ल्यवत्"-इस सामान्यतोदृष्ट अनुमान के द्वारा करते हुए कहा है - सामान्यतोऽनुमानेन प्रसिद्धोऽपि विशेषणे । कथय कथं पक्षोऽयमप्रसिद्धविशेषणः ।। (त० प्र० पृ० २१) अर्थात् 'अनुभूतिः स्वयंप्रकाशा, अनुभूतित्वाद्, यन्नैवं तन्नैवम्, यथा घटः '- इस अनुमान में अप्रसिद्धि विशेषणतारूप पक्ष-दोष का उद्भावन नहीं किया जा सकता, क्योंकि उक्त सामान्यतोदृष्ट अनुमान के द्वारा साध्य की सामान्यतः प्रसिद्धि हो जाती है और प्रसिद्ध स्थल की विशेषतः जिज्ञासा होने पर अनुभूति में स्वप्रकाशत्व-साधक उक्त केवल व्यतिरेकी अनुमान का प्रयोग किया जाता है । सामाधान : कथित सामान्यतोदृष्ट अनुमान के द्वारा खपुष्पादि अत्यन्त अयोग्य और अप्रसिद्ध पदार्थों की सिद्धि नहीं की जा सकती, अपितु योग्य वस्तु की ही सिद्धि सम्भावित है, अत एव चिदानन्द पण्डितादि विद्वानों ने अपने (नीतितत्त्वाविर्भाव) ग्रन्थ में केवल व्यतिरेकी का न तो साक्षात् निराकरण किया है और न उसे स्वीकार किया है, इसलिए ऐसी व्यवस्था करनी उचित है कि जिन केवलव्यतिरेकी अनुमानों की साध्य - प्रसिद्धि कथमपि नहीं की जा सकती, वे अवश्य निराकरणीय हैं, जैसे कि 'अनुभूतिः स्वयंप्रकाशा, वस्तुत्वात्' ऐसे अनुमानों में वस्तुत्वादि धर्मों का नास्तित्व (अभाव) कहीं भी प्रसिद्ध नहीं किया जा सकता, अतः ज्ञान में स्वप्रकाशत्व सिद्ध नहीं हो सकता । अन्वयव्यतिरेकी अनुमान के हेतु में पाँच रूप (धर्म) होते हैं- (१) पक्षवृत्तित्व, (२) सपक्षवृत्तित्व, (३) विपक्षावृत्तित्व, (४) अबाधितविषयत्व और (५) असत्प्रतिपक्षत्व । ( श्री वरदराज भी कहते हैं- " रूपाणि च पक्षधर्मत्वम्, सपक्षसत्त्वम्, विपक्षाद् व्यावृत्तिः, अबाधितविषयत्वम्, असत्प्रतिपक्षत्वम्" (ता. र० पृ० १७८) । अग्न्यादि साध्य की अनुमित्सा जहाँ होती है, ऐसे पर्वतादि धर्मी पक्ष कहलाते हैं, उनकी धूमादि हेतुओं में आधेयता या वृत्तिता ही पक्षवृत्तित्व है । साध्य की सत्ता जहाँ निश्चित होती है, ऐसे महानसादि सपक्ष कहे जाते हैं, उनमें हेतु की वर्तमानता ही सपक्षवृत्तित्व है । साध्याभाव जहाँ निश्चित होता है, ऐसे महाह्रदादि विपक्ष कहे जानेवाले पदार्थों में हेतु की अवर्तमानता विपक्षावृत्तित्व है । जिस हेतु का साध्यरूप विषय अबाधित होता है, उसमें अबाधितविषयकत्व रहता है। हेतु सम्बन्धी साध्य के विपरीत अर्थ के साधक हेतु को प्रतिहेतु या सत्प्रतिपक्ष कहते हैं, उसका अभाव ही असत्प्रतिपक्षत्व है । (तार्किकरक्षाकार ( ता० २० पृ० ७६) ने भी पक्षादि के ऐसे ही लक्षण किए हैं- पक्षः साध्यान्वितो धर्मी, साध्यजातीयधर्मवान् । सपक्षोऽथ विपक्षस्तु साध्यधर्मनिवृत्तिमान् ।। केवलान्वयी में विपक्षावृत्तित्व धर्म नहीं रहता, क्योंकि उसका कोई विपक्ष नहीं होता, अतः उसमें चार ही रूप रहते हैं । केवलव्यतिरेकी में सपक्षवृत्तित्व नहीं रहता, क्योंकि उसका कोई सपक्ष नहीं होता । यदि सपक्ष के होने पर भी हेतु उसमें न रह कर केवल पक्ष में रहता है, तब वह सद्धेतु न होकर ‘असाधारण' नाम का हेत्वाभास हो जायगा, जैसे- 'पृथिवी नित्या, गन्धवत्त्वात्' । यहाँ पर नित्यत्वेनाभिमत आकाशादिरूप सपक्ष के रहने पर भी गन्धवत्त्व हेतु उसमें नहीं रहता, अतः 'असति सपक्षे पक्षमात्रवृत्तिः केवलव्यतिरेकी'-ऐसा लक्षण तार्किकगण किया करते हैं (श्री वरदराज कहते हैं-" सपक्षे सति चाभासः स्यादसाधारणस्त्वसौ । सपक्षे सति तत्रावर्तमानः पक्षमात्रवर्ती हेतुरसाधारणानैकान्तिको नाभासः स्यात्, यथा भूर्नित्या गन्धवत्त्वादिति । अत्र हि गगनादिषु सपक्षेषु सत्स्वपि तत्रावर्तमानं पक्षभूतभूमिमात्रवर्ति गन्धवत्त्वमाभासो भवति, अविद्यमानसपक्षः केवलव्यतिरेकीत्युक्तमेवेति भावः " (ता. र. पृ. ९८) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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