SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुझय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ३१/६५४ यदि ईश्वर में स्वभावभेद माना न जाये तो सृष्टि और संहारादि कार्य दुर्घट बन जायेंगे। क्योंकि जगत का सर्जन करने का स्वभाव हमेशा एक स्वरुप में मानोंगे तो जगत का संहार नहीं कर सकेगा तथा जगत के संहार करने का स्वभाव नित्य मानोंगे तो जगत का सर्जन नहीं कर सकेगा। वैसे ही ईश्वर के ज्ञानादि भी नित्य नहीं है। क्योंकि विरुद्ध प्रतीति होती है। ईश्वर के ज्ञानादि नित्य नहीं है, क्योंकि ज्ञानादि है। जैसे हमारे ज्ञानादि नित्य नहीं है। वैसे ईश्वर के ज्ञानादि भी नित्य नहीं है। इस प्रकार अनुमान से भी ईश्वर के ज्ञानादि को नित्य मानने में विरोध है। इसलिए "ईश्वर के ज्ञानादि नित्य है।" इत्यादि जो कहा गया था, वह भी खंडन हुआ जानना । ईश्वर का सर्वज्ञत्व किस प्रमाण से ग्राह्य है? ईश्वर का सर्वज्ञत्व प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्राह्य नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न होता होने से अतीन्द्रिय अर्थ (पदार्थ) को ग्रहण करने में असमर्थ है। ईश्वर की सर्वज्ञता का नित्यसहचारी कोई न होने से अव्यभिचारी लिंग का भी अभाव है। इसलिए अनुमान से भी ईश्वर में सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं होती है। ईश्वरवादि (पूर्वपक्ष):जगत में जो विचित्रता दिखाई देती है, वह दूसरी कोई भी पद्धति से संगत नहीं होती है। इसलिए अन्यथा अनुपपत्ति से इस जगत की रचना करनेवाला सर्वज्ञ हो, वैसा सिद्ध होता है। इस तरह से ईश्वर में सर्वज्ञता है। जैन (उत्तरपक्ष): आपने जो जगत की विचित्रता से ईश्वर की सर्वज्ञता सिद्ध की वह योग्य नहीं है, क्योंकि जगत की विचित्रता का ईश्वर की सर्वज्ञता के साथ अविनाभाव नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञता के बिना भी शुभ-अशुभकर्म के विपाकादि के वश से जगत की विचित्रता संगत हो जाती है। __ वैसे ही ईश्वर यदि सर्वज्ञ है, तो जगत में अत्याचार करनेवाले राक्षसो को क्यों उत्पन्न किये? वैसे ही जिसका पीछे से नाश करने के लिए ईश्वरको स्वयं अवतार लेना पडे, वैसे असुरो की उत्पत्ति ही क्यों की? तथा हम लोग (जैन) कि जो ईश्वर का निषेध करते है और ईश्वर की टीका करते है, उनकी (हम जैसे लोगोकी) उत्पत्ति क्यों की है ? इसलिए उस ईश्वर में सर्वज्ञता किस तरह से होगी? बहोत (एक से ज्यादा) ईश्वरो को मानने में कार्य करने में विवाद खडा होता है तथा कार्य बिगड जाने का संभव रहता है - ऐसे भय से ईश्वर को एक मानना वह कृपण (कंजूस) की समान है। जैसे खानापीना इत्यादि के खर्च के भय से कृपण अत्यंत लाडले बच्चो को तथा स्त्री मित्र का त्याग करके शून्य जंगल में रहने चला जाये, वैसी यह बात है। देखो, अनेक कीडे मिलकर, एक स्थान को बनाकर उसमें विवाद के बिना रहते ही है तथा हजारो मधुमक्खीयां मिलकर एक छत पर मधपूडा बनाकर उसमें वे सभी एकसाथ व्यवस्था करके रह जाती है। तो सर्वज्ञ तथा वीतरागी ईश्वरो में विवाद का क्या कारण है? वे तो सर्वज्ञ और वीतरागी होने से विवाद की आवश्यकता रहेगी ही नहि। वैसे ही ईश्वर को समस्तजगत के कर्ता मानने में (स्वीकार करने में) आयेगा तो यह शास्त्र प्रमाणभूत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy