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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- ४ शब्दविषयक न हो और जो शब्दविषयक हो वह अवक्तव्य न बने इसलिए अवक्तव्य पदवाले ५ ( अथवा ४) भांगे व्यंजनपर्याय में संभवित नहीं है । परन्तु अर्थपर्याय में वे सातो भांगे संभवित है ।
अथवा जो जो व्यंजनपर्याय है अर्थात् शब्दोच्चारण रुप पर्याय | वे व्यंजनपर्याय शब्दनय और समभिरूढ नय के मतानुसार सविकल्प और एवंभूतनय के मतानुसार निर्विकल्प होते हैं । सारांश कि, कुल मिलाकर सात नय है । उसमें से पीछे के शब्दादि तीन नयो के मत से व्यंजनपर्याय होते है । क्योंकि प्रथम के चार नय तो अर्थनय है । वे चारो अर्थनय तो पदार्थ में रहे हुए पदार्थ के स्वरूपात्मक " अर्थपर्यायो" को प्रधानरूप से स्वीकार करते हैं । व्यंजनपर्याय शब्दोच्चारण स्वरूप होने से उसकी ओर ज्यादा भार नहीं देते है । शब्द बोलने मात्र से लिंगादि द्वारा या व्युत्पत्ति द्वारा या क्रिया परिणति द्वारा अर्थ का ही भेद करना वह पीछे के तीन नय का ही काम है । बोले जाते शब्द के उपर ज्यादा जोर देने का काम पीछले तीन नयो का है । प्रथम के चार नय बोले जाते शब्दो के उपर लक्ष्य नहीं देनेवाले हैं । इसलिए अर्थपर्याय सातो नय से संभवित । परन्तु व्यंजनपर्याय पीछे के तीन नय से संभवित हैं । उस कारण से व्यंजनपर्यायो के विषय में वे प्रथम के चार नयो की प्रवृत्ति संभवित नहीं हैं । फिर भी यह बात बहोत सूक्ष्मता से जाननी हो तो पूज्य महोपाध्यायजी श्री यशोविजयजी महाराजश्री के ही बनाये हुए " अनेकान्त व्यवस्था" नाम ग्रंथ में से जान लेना । यह ग्रंथ भी श्री महोपध्यायजी का ही बनाया है और वहाँ यह विषय ज्यादा सूक्ष्मता से समजाया हैं अर्थात् यहाँ वह विषय की ज्यादा चर्चा न करते हुए वहाँ से देख लेने का सुझाव दिया है ।
इस अनुसार से कोई एक विषय के उपर अपने-अपने प्रत्येक स्वरूपो में जहाँ अनेक नयो के अभिप्राय अनुसार विवाद हो, तब ऐसे स्थान पे वह विवाद टालने के लिए " स्यात्कार" पद से लाञ्छित " तावन्नयार्थ" = उतने शेष रहे हुए सभी नयो के अर्थ का प्रकारकसमूहालंबन प्रकारवाले सातो नयो के अर्थ के समूह के आलंबनवाला बोध करानेवाला ऐसा एक ही भाँगा चाहने जैसा हैं । जैसे कि, "यह कथंचिद् घट हैं" इस वाक्य 'घट के अस्तित्व को बतानेवाला एक भांगा किया, परन्तु उसके आगे " कथंचिद्” अर्थात् " स्यात् " शब्द से स्यात्कार शब्द से लाञ्छित होने से मिट्टी का हैं परन्तु सुवर्णादि का नहीं है, अहमदाबाद का हैं परन्तु सुरत आदि अन्य क्षेत्रो का नहीं हैं, वसंतऋतु का बना हुआ हैं परन्तु शिशिरादि अन्य ऋतु का बनाया हुआ नहीं है, रक्तादि भाववाला हैं परन्तु श्यामादि भाववाला नहीं हैं। इस प्रकार, सातो नयो के अर्थ-द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावादि की विवक्षा से घट का सम्पूर्ण स्वरूप कुछ विधिरूप और कुछ निषेधरूप, इस प्रकार सर्व स्वरूप यह एक भांगे में भी " कथंचिद् " शब्द से आ ही जाता हैं ।
अथवा व्यंजन पर्याय में जैसे दो भांगे में वस्तु का संपूर्ण स्वरूप समजा जाता हैं । वैसे यहाँ एक भागे में भी एक नय का स्वरूप प्रधानता से और शेष नयो का स्वरूप " कथंचित्" शब्द से गौणता से आ जाता होने से एक भांगा ही चाहने जैसा हैं । क्योंकि एक भांगे में भी विवक्षित वस्तु का एक स्वरूप प्रधानता से और शेष स्वरूप गौणता से भी अवश्य समाया हुआ ही है अर्थात् व्यंजनपर्याय में जैसे दो भांगो से वस्तु का क्रमशः प्रधान-गौण भाव से संपूर्ण स्वरूप बताया जाता है । वैसे यहाँ स्यात्कार शब्द से लाञ्छित एक भांगे में भी एक नय का स्वरूप प्रधानता से और शेष सर्व नयो का स्वरूप गौणता से, इस प्रकार एक भांगा भी वस्तु के पूर्ण स्वरूप को और सर्व नयगम्य स्वरूप को समजानेवाला हैं । इसलिए एक भांगे से भी चले, फिर भी यदि “ सर्व स्थान पे सप्तभंगी ही होनी चाहिए" ऐसा आग्रह हो तो भी स्याद्वादी को कुछ भी नुकसान नहीं है । क्योंकि, जैसे एक भांगा विवक्षित स्वरूप की प्रधानता और शेष स्वरूप की गौणता सूचक किया हैं, कि जिसमें वस्तु का सम्पूर्ण स्वरूप समाया हुआ है, उसकी तरह (19) चालनीय न्यायद्वारा 19. चालनीय न्याय अर्थात् चालते समय जैसे चलनी को एक ओर से ऊंची करे तब वहाँ से दाने न गीरे परन्तु दूसरी ओर के नीचे के हिस्से से गिरे और वह हिस्सा ऊंचा करे तब वहाँ से दाने न गिरे, परन्तु पहले हिस्से से दाने नीचे गिरे, उसी तरह से जैसे
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