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________________ ५३४ /११५७ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४ सोचे तब तो सप्तभंगी का नियम संभलेगा । परन्तु सात नय की विचारणा के काल में अनेक अधिक भंग होंगे । तो सप्तभंगी का नियम कैसे कहते हो ? इसी तरह से छः नय और पांच नय स्वीकार करोंगे तब भी अनेक भांगे होंगे । तो वहाँ भी सप्तभंगी का नियम कैसे रहेगा ? गुरु कहइ छइ - "तिहाँ पणि एक नयार्थनो मुख्यपणइं विधि, बीजा सर्वनो निषेध, इम लेइ प्रत्ये कि अनेक सप्तभंगी कीजई ।" - गुरुजी उपरोक्त प्रश्न का शिष्य को उत्तर देते हुए बताते हैं कि, वहाँ भी (अर्थात् नैगमादि सात छ: पाँच नय जब समजे तब भी) कोई भी एक नय की प्रधान रूप से अर्पणा करके विधान समजे और बाकी के छः नयो की (शेष नयो की) एक साथ गौण विवक्षा करके वहाँ शेष सर्व का निषेध जानना । ऐसा करने से सर्व स्थान पर मूल तो दो ही भांगे होंगे । उसके बाद संचारण से प्रत्येक दो भांगे में भिन्न भिन्न अनेक सप्तभंगीयाँ होगी। परन्तु बहुभंगीयाँ नहीं होगी । जैसे कि - सातमें से कोई भी एक नय से विधान करे. तब वह एक नय मख्य और शेष सर्व नय वहाँ गौण जाने । (यह प्रथम भंग) और सात नय में से जिस नय से निषेध बताना हो वहाँ वह निषेध वाचक नय मुख्य शेष नय गौण, (यह दूसरा भंग) इन दो के संचारण से सप्तभंगी ही होगी । परन्तु बहुभंगी नहीं होती हैं तथा विधि-निषेध में सात नयो में से जैसे-जैसे नयो की विवक्षा बदलेंगे वैसे वैसे मूल दो भांगे भिन्न भिन्न अनेक होने से उसके द्वारा होती सप्तभंगीयाँ अनेक होंगी । __ इस अनुसार से सर्वत्र मूल दो ही भांगे होने से और उसके सात ही भांगे होने से सप्तभंगी ही होती है। परन्त अनेकभंगीयां नहीं होती है । फिर भी सप्तभंगीयाँ अवश्य अनके होती हैं । इस विषय में पूज्य उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी महाराजश्री अपने क्षयोपशमानुसार अपने शास्त्रो के पठन-पाठन से और गुरुगम से जो समजाया है इस बात को स्पष्ट करते हुए अपना अभिप्राय बताते हैं कि श्री महोपाध्यायजी का मत पूज्यपाद महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजश्री स्वयं ही अपना अभिप्राय बताते हुए कहते हैं कि - हम तो ऐसे जानते हैं कि - सातो नयो से और सप्तभंगी से वस्तु का परिपूर्ण स्वरूप सोचा जा सकता हैं। जाना जा सकता हैं । परन्तु वचन व्यवहार करने में तो एक काल में कोई भी एक नय से अथवा सप्तभंगी के कोई भी एक भांगे से ही वस्तु का स्वरूप बोला जा सकता हैं और दूसरे को समजाया जा सकता हैं । यह वचन व्यवहार करने में जो कोई एक नय या सप्तभंगी का जो कोई एक भांगा बोला जाये, उसके साथ "सकल नयो के अर्थ को प्रतिपादन करने के तात्पर्यवाले "स्यात्" शब्द के अधिकरणवाला वह वाक्य यदि करे तो वह प्रमाणभूत वाक्य रचना मानी जाती है।" इस लक्षण को ध्यान में लेकर वैसे वैसे स्थान पर सर्व नयो को अर्थ के समूह रूप से आलंबन स्वरूप ऐसे कोई भी एक भांगे में भी “स्यात्" शब्द होने के कारण विवक्षित एक नयवाले वाक्य में भी गौणरूप से इतर सर्व नयो का अन्तर्भाव हो ही जाता है । कोई भी इतर नयो का निषेध नहीं रहता है । सारांश कि - वचनोच्चार में चाहे कोई एक नय या कोई एक भांगा बोला जाता हो, परन्तु सर्व नयो के अर्थो के समूह के आलंबन भूत ऐसा "स्यात्" शब्द आगे जुडा हुआ होने से, वह विवक्षित एक नयवाले वचनोच्चारण में भी इतर सर्वनयो का अर्थ संमीलित हैं । एकान्त वाक्य नहीं है। परन्तु अनेकनयो की सापेक्षतावाला वाक्य हैं । इसलिए उसको प्रमाण वाक्य माना जाता है । उस कारण से “स्यात्" शब्द से लाञ्छित सभी वाक्य उच्चारण में एक नयवाले होने पर भी गर्भित रुप से सर्वनयो की सापेक्षतावाले हैं । इसलिए प्रमाणवाक्य हैं । क्योंकि, घट-पट आदि सर्व पदार्थ मात्र में दो प्रकार के पर्याय होते है । १. अर्थपर्याय, और २. व्यंजन पर्याय । वहाँ घट-पट आदि पदार्थ मात्र में अस्तित्व, नास्तित्व, अवक्तव्य इत्यादि जो जो पर्याय स्वरूप से वर्तित होता हैं । (उसमें कुछ पर्याय वचन द्वारा बोल के समजाये जा सके ऐसे भी होते हैं और कुछ वचन द्वारा बोले न जा सके ऐसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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