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________________ ५३० / ११५३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- ४ ये भांगे याद रखने के लिए पहले बताया हुआ क्रम ज्यादा सरल रहता हैं । क्योंकि उसमें प्रथम के तीन भांगे एकसंयोगी बाद के ३ भांगे दो संयोगी और अंतिम एक त्रिसंयोगी भांगा होता हैं। इस प्रकार से किसी भी पदार्थ में एक अपेक्षा से जो स्वरूप होता हैं वहाँ दूसरी अपेक्षा से (रुपान्तर उससे विरुद्ध दिखाई देता स्वरूप भी होता ही हैं । तो भेदाभेद को एक साथ अपेक्षा भेद से रहने में विरोध की बात कैसे की जाये ? सर्वत्र भेदाभेद, अस्ति-नास्ति, नित्यानित्य अपेक्षा भेद से व्याप करके रहता हैं । इसलिए भेदाभेद ही व्याप्यवृत्ति है । केवल अकेला भेद व्याप्यवृत्ति नहीं हैं । इसलिए नैयायिक की केवल अकेले भेद को ही व्याप्यवृत्ति मानने की बात यथार्थ नहीं हैं ।।४ - ९ ।। पर्यायारथ भिन्न वस्तु छ, द्रव्यारथई अभिन्नो रे, क्रमइं उभय नय जो अर्पीजइ, तो भिन्न नई अभिन्नो रे । । ४ - १० ।। गाथार्थ : पर्यायार्थिक नय की अर्पणा से सर्व वस्तु भिन्न हैं । द्रव्यार्थिक नय की अर्पणा से सर्व वस्तु अभिन्न है। क्रमशः दोनों नयो की अर्पणा करने से सर्व वस्तु कथंचिद् भिन्न और कथंचिद् अभिन्न हैं । । ४ - १० । (13) भिन्नाभिन्नत्व की विवक्षा : अर्थात् इवइ ए सप्तभंगी भेदाभेदमां जोडीइ छइ - उपर की गाथा में अस्ति नास्ति के जैसी सप्तभंगी समजाई, उसी तरह से भिन्न और अभिन्न की सप्तभंगी होती हैं । स्वद्रव्य-स्वक्षेत्रादि की अर्पणा करने से अस्तिता और परद्रव्य-परक्षेत्रादि की अर्पणा करने से नास्तिता जैसे लगती है । उसी तरह से पर्यायार्थिक नय की अर्पणा करने से भेद और द्रव्यार्थिक नय की अर्पणा करने से अभेद भी है । वह अब समजाते हैं : (१) पर्यायार्थिक नय की जब अर्पणा (प्रधानता) करे तब द्रव्य से गुण - पर्याय और गुण- पर्यायो से द्रव्य कुछ भिन्न लगता हैं । जैसे कि, गुण- पर्यायो का आधार हो वह द्रव्य और द्रव्य में आधेय रूप में जो हो, उसे गुण-पर्याय कहा जाता है । तथा जो “सहभावी ” धर्म हो वह गुण और " क्रमभावी ” धर्म हो वह पर्याय कहा जाता है । इस तरह से लक्षणो से (संख्या से संज्ञा से-आधाराधेय भाव से और इन्द्रियग्राह्यता आदि से) द्रव्य से गुणपर्यायो का भेद है । तथा सहभावित्व और क्रमभावित्व लक्षण से गुणो और पर्यायों का भी कथंचित् भेद हैं । यह प्रथम भांगा हैं । (२) द्रव्यार्थिक नय की जब अर्पणा (प्रधानता) करे तब द्रव्य से गुण-पर्याय और गुण- पर्यायो से द्रव्य अभिन्न है । जे माटि - क्योंकि गुण और पर्याय ये कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है, कि जो द्रव्य से भिन्न है । परन्तु द्रव्य के ही आविर्भाव (प्रकटीकरण स्वभाव) और तिरोभाव (अप्रकटीकरण स्वभाव) मात्र ही है । सर्प की उत्फणा और विफणा ये अवस्था मात्र ही हैं और वे अवस्थायें सर्पद्रव्य से भिन्न नहीं है । वैसे सर्व द्रव्यो में अवस्था, यह अवस्थावान् से भिन्न संभवित नहीं है, परन्तु अभिन्न । यह दूसरा भांगा जाने । (३) अनुक्रमइ जो नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अर्पीइ, तो कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्न कहिइ (३) ।।४ - १० ।। क्रमशः यदि ये दोनों नयो की अर्थात् पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक नय की अर्पणा (प्रधानता) करे तो यही वस्तु कथंचित् भिन्न भी हैं और कथंचिद् अभिन्न भी हैं ही । घटद्रव्य और घट का रक्तादिवर्ण और घटाकारता, ये तीनों वस्तु का आधाराधेयादि लक्षणो से प्रथम विचार करे तो भिन्न लगेगा और बाद में एकक्षेत्र व्यापी आदि भावो से सोचेंगे तो घटद्रव्य स्वयं ही श्याम-रक्तादि भाव से परिणाम पाता हैं । मिट्टी द्रव्य स्वयं ही घटाकार में परिणाम पाता हैं । इस कारण से मृद् द्रव्य, श्याम रक्तादि गुण और घटाकारता पर्याय एकक्षेत्र व्यापी है ऐसा लगेगा इसलिए अभिन्न भी है । यहाँ टबे के मूल 13. टबो : हवइ ए सप्तभंगी भेदाभेद में जोडीइ छइ - पर्यायार्थ नय से सर्व वस्तु द्रव्य गुण-पर्याय, लक्षणई कथंचिद् भिन्न ज छई १. द्रव्यार्थ नय से कथंचिद् अभिन्न ज छ, जे माटिं गुणपर्याय द्रव्यना ज आविर्भाव तिरोभाव छई २. अनुक्रमइ जो २ नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अर्पीइ, तो कथंचिद् भिन्न कथंचिद् अभिन्न कहि ३ । । ४ - १० । । For Personal & Private Use Only Jain Education International - www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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