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________________ ५२८ / ११५१ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४ जब केवल द्रव्य की प्रधानता करे और क्षेत्रादि की गौणता सोची तब अर्थात् " द्रव्यघटने" स्व शब्द से प्रधानता से बताने की इच्छा हो तब, क्षेत्रादिक आश्रय से जो-जो घट । वे सभी पर होते हैं और ऐसा होने से उसके आश्रय से भी प्रत्येक में सप्तभंगीयाँ होती हैं । इस तरह से भी करोडो प्रमाण में सप्तभंगीयाँ होती है, जैसे कि, पानी भरने के लिए "मिट्टी द्रव्य का बना हुआ घट चाहिए" यहाँ द्रव्यघट मात्र की प्रधानता करके बाद में वह घट अहमदाबाद का हो या सुरत का हो, वसंतऋतु का हो या शिशिर ऋतु का हो, पक्व हो या अपक्व हो इत्यादि भावो की अविवक्षा (गौणता) सोचे तब उसकी भी अलग-अलग सप्तभंगी होती हैं । सारांश यह है कि, पहले द्रव्य-द्रव्य में स्व-परका भेद किया था, कि मिट्टी द्रव्यरूप से घट अस्ति हैं और दूसरे द्रव्य के बने हुए रुप से नास्ति हैं और अब यहाँ द्रव्य मात्र को स्व के रूप में विवक्षा करके तथा क्षेत्र - काल-भाव आदि कीपर के रूप में विवक्षा की । इसलिए उसकी भी स्व-पर रुप से सप्तभंगी होगी, इस प्रकार विवक्षा वश से अनंती सप्तभंगी होती हैं । तथापि लोक प्रसिद्ध जे कम्बुग्रीवादि पर्यायोपेत घट छइ, तेहनइ ज- स्वत्रेवडीनई, स्वरुपई अस्तित्व, पररुपई नास्तित्व इम लेइ सप्तभंगी देखाडिदं तथाहि उपर समझायें अनुसार अनेक प्रकार की अनेक सप्तभंगीयाँ होती होने पर भी लोको में प्रसिद्ध जो कंबूग्रीवादि आकारवाले (नीचे से चौडे और उपर से गले तक सिकुडे और उसके उपर गले युक्त आकारवाले) अर्थात् ऐसे प्रकार के पर्याय से युक्त पदार्थ को घट कहा जाता हैं और उस पदार्थ को ही "स्व" शब्द से तिगुना करे यानी स्वशब्द से विवक्षा करे (तिगुना करे अर्थात् समजे, विवक्षा करे, विवेक करे) तब उस स्वरूप से अस्ति और पररुप से नास्ति धर्मवाला यह घट हुआ और इस प्रकार, विरोधी दो धर्म विवक्षा भेद से सिद्ध होने से दो भांगे बनने से उसके संचारण से क्रमशः सप्तभंगी होती है । इस प्रकार अनंती सप्तभंगीयाँ होती हैं । परन्तु अनंतभंगी नहीं होती है । क्योंकि सभी वस्तुएं विवक्षा भेद से विरोधी दिखते दो धर्मो का समन्वयात्मक स्वरूपवाली हैं । इसलिए विरोधी दिखते दो धर्मो का समन्वय करने स्वरूप से प्रथम दो भांगे होते हैं । उसके बाद परस्पर के मिलन से शेष पांच भांगे बनते हैं । जैसे यह अस्ति नास्ति की सप्तभंगी की। उसी तरह से नित्य- अनित्य की, भिन्न- अभिन्न की, सामान्य- विशेष की ऐसे अनेक सप्तभंगीयाँ होती है । परंतु कोई भी विरोधी दो धर्म के उपर से अनंत भांगे न हो होने से अनंतभंगी नहीं होती है । वहाँ उदाहरण के रुप में एक “ अस्ति नास्ति की सप्तभंगी" ग्रंथकार श्री दिखाते है । वह इस अनुसारसे - Jain Education International (१) स्वद्रव्य-क्षेत्र काल भावापेक्षाइं घट छइ ज । संसारवर्ती सभी वस्तुयें स्वद्रव्य आश्रयी, स्वक्षेत्र आश्रयी, स्वकाल आश्रयी और स्वभाव आश्रयी " अस्ति" स्वरूप ही हैं । जैसे कि, मिट्टी का विवक्षित ऐसा “घट" मिट्टी द्रव्य को आश्रयी, अहमदाबाद में निपजनेपन को आश्रयी, वसंत ऋतु में जन्म पानेपन को आश्रयी और पक्वता तथा रक्ततागुण को आश्रयी " है ही ।" ऐसे प्रश्नो के उत्तर में " यह घट हैं ही" ऐसा ही कहना पडेगा । क्योंकि घडे में वैसा स्वरूप वास्तविक रुप से वर्तित होता है । यह " स्यादस्ति एव" नाम का प्रथम भांगा होता है । (२) परद्रव्य-क्षेत्र-कालभावापेक्षा नथी ज । - वही सभी वस्तुओं में परद्रव्य-परक्षेत्र- परकाल और परभाव को आश्रयी "नास्ति" स्वरूप भी है ही । जैसे कि, मिट्टी का विवक्षित वही घट सोने-चाँदी - ताम्र आदि अन्य द्रव्य आश्रयी, सुरत आदि अन्यक्षेत्र आश्रयी, शिशिरादि अन्य ऋतु आश्रयी और अपक्व तथा श्यामत्वादि गुणो की आश्रयी " नहीं हैं" और जब कोई ऐसे प्रश्न करे कि क्या यह घट सुरतका तथा शिशिर ऋतु का है ? तो ऐसे प्रश्नो के उत्तर में "यह घट ऐसा है ही नहीं " ऐसा ही उत्तर देना पडता है। क्योंकि घड़े में ऐसे द्रव्यादि को आश्रयी अस्ति स्वरूप प्रवर्तित नहीं होता है । यह स्यान्नास्ति एव नामका I - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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