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________________ सप्तभंगी द्वितीय भंग: अब द्वितीय भंग का स्वरूप बताते है - - एवं स्यान्नास्त्येव सर्वमिति प्राधान्येन निषेधकल्पनया द्वितीयः । (4) अर्थ : इसी प्रकार किसी अपेक्षा से 'सब पदार्थ नहीं है', इस रीति से निषेध की प्रधानरूप से विवक्षा के द्वारा दूसरा भङ्ग होता है । ५०९ / ११३२ कहने का सार यह है कि, प्रथम भङ्ग में सत्त्वरूप धर्म की प्रधानरूप से विवक्षा है, इस कारण असत्त्व का ज्ञान गौण रूप से होता है। सर्वथा असत्त्व की अप्रतीति नहीं होती । प्रत्येक भङ्ग एक एक नियत धर्म को प्रधानरूप से प्रकट करता है । अभावात्मक विरोधी धर्मों की प्रतीति अप्रधानरूप से होती है । सप्तभङ्गी श्रुत प्रमाण का अवान्तर भेद है । एक एक भङ्ग नयरूप वाक्य है । विरोधी धर्म का सर्वथा निषेध न करके किसी धर्म का निरूपण करना नय के स्वरूप के लिए आवश्यक है । यदि पहला भङ्ग असत्त्व का सर्वथा निषेध करे तो वह नय वाक्य ही नहीं रहेगा । इसी प्रकार यदि दूसरा भङ्ग सत्त्व का सर्वथा निषेध करे तो वह भी नय न होकर दुर्नय हो जायेगा । इस दशा में नयों का समूहरूप सप्तभङ्गी भी अप्रमाण हो जायेगी। सत्त्व और असत्त्व सापेक्ष भाव हैं। अपेक्षा युक्त अर्थों में अपेक्षा से ही प्रतिपादन होना चाहिए । सत्त्व और असत्त्व, रूप-रस स्पर्श आदि के समान सर्वथा परस्पर निरपेक्ष नहीं है । स्वद्रव्य और परद्रव्य आदि की अपेक्षा से किसी भी अर्थ का सत्त्व और असत्त्व अनुभव सिद्ध है । शब्द जब द्रव्य आदि की अपेक्षा के बिना अर्थ के सत्त्व और असत्त्व का प्रकाशन करता है तब वह नयवाक्य नहीं होता तब उसमें लौकिक प्रामाण्य रहता है। सप्तभङ्गीरूप प्रामाण्य के लिए अथवा प्रथम द्वितीय आदि भङ्गरूप नय के लिए शब्द से उत्पन्न ज्ञान का अपेक्षात्मक होना आवश्यक है । स्व- द्रव्य क्षेत्र आदि के साथ अर्थ का साक्षात् सम्बन्ध है । इसलिए उनके कारण एक अर्थ का सत्त्व है, पर जो द्रव्य क्षेत्र आदि भिन्न वस्तु के साथ सम्बन्ध रखते हैं, वे भी सत् वस्तु के सम्बन्धी हैं । अपेक्षा के कारण होनेवाला सम्बन्ध दो प्रकार से होता है, सत्त्व के द्वारा और असत्त्व के द्वारा । जो द्रव्य आदि स्व है उनके साथ सत्त्व के द्वारा संबंध है और जो द्रव्य आदि पर हैं उनके साथ असत्त्व के द्वारा सम्बन्ध है और घट अवस्था में पिंड आकार का पर्याय नहीं होता, इसलिए उसके साथ असत्त्व के द्वारा सम्बन्ध है । जो द्रव्य क्षेत्र आदि घट के स्वरूप में प्रतीत नहीं होते, वे ही पर कहे जाते हैं और इसलिए उनके साथ असत्त्व के द्वारा सम्बन्ध होता है। इसलिए सत्त्व के द्वारा जिसके साथ सम्बन्ध है वही मात्र सम्बन्धी नहीं होता। जिनके साथ असत्त्वरूप से सम्बन्ध है वे भी सम्बन्धी होते हैं । यदि वे पर होने के कारण सर्वथा सम्बन्ध से रहित हों तो सामान्य रूप से उनकी सत्ता कहीं भी नहीं होनी चाहिये । परन्तु पर द्रव्य आदि का स्वस्वरूप से अभाव प्रत्यक्ष और युक्ति के विरुद्ध है । जब लोग कहते है कि, दरिद्र के पास धन नहीं है तब असत्त्वरूप से धन का सम्बन्ध दरिद्र के साथ होता है, सत्त्वरूप से सम्बन्ध न होने के कारण असत्त्वरूप से जो सम्बन्ध है उसका निषेध नहीं हो सकता । कुछ लोग कहते हैं कि, असत्त्व अभावरूप है और अभाव तुच्छरूप हे तुच्छ का स्वभाव शून्यता है। शून्य की कोई शक्ति नहीं होती, इसलिये उसमें सम्बन्ध करने की शक्ति भी नहीं होती । इस दशा में तुच्छ के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता, यह उनका कथन भी युक्त नहीं है । भिन्न भिन्न रूप से न होने को असत्त्व कहते हैं और असत्त्व वस्तु का धर्म है, इसलिए एकान्तरूप से वह तुच्छरूप नहीं है । असत्त्व भी वस्तु है, इसलिए उसके साथ सत् वस्तु का सम्बन्ध 4. अथ द्वितीयभङ्गोल्लेखं ख्यापयन्ति- स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः । । १६ । 'परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैः कथञ्चिन्नास्त्येव कुम्भादिः' इति निषेधकल्पनया द्वितीयो भङ्गः ।।४ १६ ।। (प्र.न. तत्त्वा.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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