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________________ ५०६ / ११२९ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- ४ प्रश्न करने के कारण बिना विरोध से अलग अलग और मिलित विधि और निषेध की कल्पना के द्वारा 'स्यात्' शब्द से युक्त सात प्रकार का शब्द प्रयोग सप्तभङ्गी कहलाता है । कहने का मतलब यह है कि, जीव अजीव आदि जितने अर्थ हैं उन सब में सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, आदि धर्मों में प्रश्न करने के कारण विधि और निषेध के द्वारा सात प्रकार का वचन सप्तभङ्गी है । प्रत्येक धर्म का अपने अभावात्मक धर्म के साथ स्वाभाविक विरोध है । अपेक्षा के भेद से परस्पर विरोधी धर्मों के विरोध को दूर करके धर्मी अर्थ अनेक धर्मों से युक्त प्रकाशित किया जाता है। कभी विधि की कल्पना की जाती है और कभी निषेध की । एक अपेक्षा से विधि होती है और अन्य अपेक्षा से निषेध । निरपेक्ष भाव से जो विरोधी हैं उनका विरोध अपेक्षा के कारण दूर हो जाता है । एक धर्मी में एक काल में विरोधी धर्मों का प्रतिपादन सप्तभङ्गी के लिए अत्यन्त आवश्यक । जिन धर्मों का परस्पर विरोध नहीं है उन धर्मों का धर्मी में एक साथ प्रतिपादन सप्तभङ्गी नहीं हैं, एक फल में रूप रस गन्ध और स्पर्श आदि एक काल में प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं । रूप आदि का परस्पर विरोध नहीं हैं, वे परस्पर मिलकर रहते हैं, इसलिए उनका एक धर्मी में निरूपण सप्तभङ्गी नहीं है । धर्म का अपने अभाव के साथ विरोध होता है। धर्म भावात्मक है और अभाव उसका निषेधात्मक है । भाव और अभाव स्वाभाविक रूप से परस्पर विरोधी हैं । जहाँ भाव है वहाँ अभाव नहीं और जहाँ अभाव है वहाँ भाव नहीं । भाव और अभाव रूप विरोधी धर्मों का अपेक्षा के द्वारा एक धर्मी में एक काल में निरूपण हो, तो सप्तभङ्गी हो जाती है। कोई भी धर्म हो उसका अपने अभाव के साथ विरोध है, इस विरोध को सप्तभङ्गी दूर करती है । किसी भी धर्म के विषय में सप्तभङ्गी होती है तो भाव के साथ अभाव के विरोध को दूर करती ही है । जब सत्त्व और असत्त्व का एक धर्मी में प्रतिपादन होता है तथा भाव और अभाव का विरोध दूर नहीं होता किन्तु जब भेद और अभेद का, नित्यत्व और अनित्यत्व आदि का एक धर्मी में प्रतिपादन होता है तभी भाव और अभाव का विरोध दूर हो जाता है । असत्त्व जिस प्रकार सत्त्व का अभाव है, इस प्रकार अभेद भेद का अभाव है, नित्यत्व का अभाव अनित्यत्व है । भाव और अभावरूप से विधि और निषेध का प्रतिपादन सप्तभङ्गी का प्राण होता है। एक धर्मी में एक धर्म का विधान हो और उससे भिन्न किसी अन्य धर्म का निषेध हो, तो सप्तभङ्गी नहीं होती । अग्नि में रूप है और रस नहीं इस प्रकार कहा जाय तो सप्तभङ्गी नहीं प्रकट हो सकती । अग्नि में रूप के सत्त्व के साथ रस के असत्त्व का विरोध नहीं है । विरोध से रहित अनेक धर्मों का एक धर्मी में प्रतिपादन करने पर जिस प्रकार सप्तभङ्गी नहीं होती, इस प्रकार एक धर्मी में विरोध से रहित एक धर्म के सत्त्व और अन्य धर्म के असत्त्व का प्रतिपादन हो तो भी सप्तभङ्गी नहीं हो सकती । विरोधी धर्मों में विरोध के अभाव का निरूपण हो, तो सप्तभङ्गी होती है । वचन के जिन प्रकारों से अर्थ भिन्न हो जाते हैं वे भङ्ग कहे जाते हैं । सात भङ्गों समूह को सप्तभङ्गी कहते हैं। सात भङ्ग की उत्पत्ति का रहस्य बताते हुए कहते है कि, के इयं च सप्तभङ्गी वस्तुनि प्रतिपर्यायं सप्तविधधर्माणां सम्भवात् सप्तविधसंशयोत्थापितसप्तविधजिज्ञासामूलसप्तविधप्रश्नानुरोधादुपपद्यते ।(2) (जैनतर्कभाषा) अर्थ : एक वस्तु के प्रत्येक पर्याय में सात प्रकार के ही धर्म हो सकते हैं । इस कारण सात प्रकार के संदेह और इसी 2. प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव सम्भवात् ।।४ - ३९ ।। तेषामपि सप्तत्वं सप्तविधतज्जिज्ञासानियमात् ।।४-४० ।। तस्यापि सप्तविधत्वं सप्तधैव तत्सन्देहसमुत्पादात् ।।४-४१ ।। तस्यापि सप्तप्रकारकत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्यैवोपपत्तेः ।।४-४२ ।। (प्र.न.तत्त्वा.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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