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________________ षड् समु भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४९७/ ११२० ब्रह्माद्वैत समस्त अर्थों को ब्रह्म रूप स्वीकार करता है । ब्रह्म का अर्थ है आत्मा । समस्त अर्थों को आत्मा जानता है और जानकर व्यवहार करता है। व्यवहार का मूल आत्मा है। आत्मा बाह्य अर्थों को जानता है इसलिए बाह्य अर्थ विद्यमान सिद्ध होते हैं । जिसका कभी ज्ञान नहीं है उसकी सत्ता नहीं है । आकाश पुष्प आदि का कभी ज्ञान नहीं होता है। इसलिए वे असत् हैं । आत्मा जानता है, इस लिए बाह्य अर्थ की सत्ता सिद्ध होती है, इसलिए ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं, ब्रह्म रूप आत्मा ही सत्य है, बाह्य अर्थ सत्य नहीं है। स्वप्न में आत्मा न होने पर भी बाह्य अर्थों को देखता है और व्यवहार करता है । स्वप्न का समस्त व्यवहार मिथ्या है, फिर भी जब तक स्वप्न रहता है तब तक वह व्यवहार त्य प्रतीत होता है । स्वप्न को मिथ्या देखकर ब्रह्माद्वैतवादियों ने जागने की दशा के संसार को भी मिथ्या मान लिया, इस प्रकार ब्रह्माद्वैत एकान्त का आश्रय लेता है । प्रमाणों से स्वप्न का और जागने की दशा का भेद सिद्ध है । एकान्तरूप से समस्त अर्थों को स्वप्न के समान मिथ्या कहने के कारण ब्रह्माद्वैत भी संग्रहाभास है । । शब्दाद्वैत इन दोनों से भिन्न अद्वैतवाद है । जो भी ज्ञान होता है उसके साथ शब्द का संबंध होता ही है । ना शब्द के शुद्ध ज्ञान का अनुभव कभी नहीं होता। कोई भी अर्थ हो उसका वाचक शब्द अवश्य होता है। शब्द के बोलने पर अर्थ की प्रतीति होती है। यदि अर्थ न हो तो भी शब्द को सुनकर अर्थ विद्यमान प्रतीत होने लगता है। शब्द के इस सामर्थ्य को लेकर शब्दाद्वैतवादी शब्द को अनादि अनन्त ब्रह्म मान लेते हैं और कहते हैं केवल शब्द सत्य है । वही अनेक प्रकार के अर्थों के रूप में प्रतीत हो रहा है । अर्थ सत्य नहीं है । कुछ दशाओं में शब्द अर्थ को न होने पर भी बतला देता है इस कारण समस्त अर्थों को एकान्त रूप से मिथ्या मान लेने के कारण शब्दाद्वैतवाद भी संग्रहाभास है प्रमाणों के द्वारा ज्ञान अथवा ब्रह्म अथवा शब्द जिस प्रकार सिद्ध होते हैं, इस प्रकार अन्य जड चेतन भी सिद्ध होते हैं, केवल एक को लेकर उसी में सब का संग्रह करना युक्त नहीं है । अद्वैतवाद जिस प्रकार संग्रहाभास है इस प्रकार सांख्यों का प्रकृतिवाद भी संग्रहाभास है । सांख्य लोग किसी एक तत्त्व को नहीं मानते । उनके अनुसार मूलभूत तत्त्व दो हैं, प्रकृति और पुरुष । प्रकृति जड है और पुरुष चेतन । समस्त संसार प्रकृति रूप है, पृथिवी जल आदि जितने भी बाह्य अर्थ हैं, वे सर्व प्रकृति के परिणाम हैं। प्रकृति कारण है, कार्य उससे अभिन्न है । कार्य कारणों में विद्यमान है और उसका कारण के साथ अभेद है। यहाँ पर एकान्तवाद का आश्रय लेकर सांख्य कारण में कार्य का सर्वथा सत्त्व और कारण के साथ कार्य का सर्वथा अभेद मान लेते हैं । सर्वथा अभेद मान लेने के कारण समस्त जड अर्थ को प्रकृति रूप कहते हैं, इस प्रकार का सत्कार्यवाद प्रमाणों के विरुद्ध है। एकान्तरूप से कारण में यदि कार्य हो तो सर्वथा कारण के साथ अभेद होने से कार्य की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए । जो अर्थ सब प्रकार से विद्यमान है उसकी उत्पत्ति नहीं होती । कारणभूत अर्थ विद्यमान है वह अपने काल में उत्पन्न नहीं होती । यदि कारण के काल में कार्य भी सर्वथा विद्यमान हो तो उसकी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये । यदि विद्यमान होने पर भी उत्पत्ति हो तो सदा कार्य उत्पन्न होता रहना चाहिए । एक बार जब पट उत्पन्न हो, तो उसके अनन्तर सदा पट उत्पन्न होता रहना चाहिए। सर्वथा कारण में कार्य के विद्यमान होने से कारण में कोई व्यापार भी नहीं होना चाहिए । कार्य को उत्पन्न करने के लिए कारण का व्यापार होता है । कार्य के उत्पन्न हो जाने पर कारण का व्यापार नहीं रहता । जब पट उत्पन्न हो जाता है तब पट को उत्पन्न करने के लिए तन्तुओं में व्यापार नहीं रहता । एकान्त रूप से कारण में कार्य के विद्यमान होने पर और अभेद होने पर कार्य उत्पत्ति से पहले विद्यमान है, इसलिए कारणों में कोई व्यापार नहीं रहना चाहिए । इस आक्षेप को दूर करने के लिए सत्कार्यवादी कहने लगता है कारण में कार्य सर्वथा विद्यमान है, पर अव्यक्त रूप से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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