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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४९५/१११८ अन्य अनेक रीतियों से भी नय के वाक्य सप्तभङ्गी को प्रकट करते हैं । नयों पर आश्रित सप्तभङ्गी के प्रसिद्ध होने पर प्रमाण सप्तभङ्गी से इसके भेद की जिज्ञासा होती है। मति आदि ज्ञान ज्ञानात्मक होने पर स्वार्थ हैं । शब्दात्मक होने पर परार्थ हैं । मति आदि के प्रतिपादक शब्द के अनुसार भी सप्तभङ्गी इसी आकार की होती है । आकार के समान होने पर एक के प्रमाण सप्तभङ्गी और अन्य के नय सप्तभङ्गी होने का कारण क्या है ? इस शंका के उत्तर में श्री महोपाध्यायजी कहते हैं कि नय वाक्य पर आश्रित सप्तभङ्गी विकलादेश है और प्रमाण सप्तभङ्गी सकलादेश है इस कारण दोनों में भेद है । जब काल आदि के द्वारा अनेक धर्मों का अभेद करके वस्तु का प्रतिपादन होता है तो सकलादेश हो जाता है और जब काल आदि के द्वारा धर्मों में भेद का आश्रय लेकर वस्तु का निरूपण होता है तो विकलादेश होता है । (इस विषय को आगे बताया ही है । इसलिए फिर से कहते नहीं है ।) नयाभासों (दुर्नयों) का निरूपण : अनंतधर्मात्मक वस्तु का स्वाभिप्रेत एक अंश को बतानेवाला अभिप्राय विशेष को नय कहा जाता है, यह बात हमनें पूर्व में देखी है । अनंतधर्मात्मक वस्तु का स्वाभिप्रेत एक अंश को स्वीकारनेवाला और वस्तु के इतर अंशो का अपलाप करनेवाला अभिप्राय विशेष को नयाभास (दुर्नय) कहा जाता है । सभी एकान्त दर्शन नयाभास स्वरूप है । क्योंकि, वे अन्य की मान्यता को खंडित करते है । अब यहाँ नयाभास का स्वरूप और किस नयाभास से किस दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ, वह जैनतर्क भाषा ग्रंथ के आधार से देखेंगे -
अथ नयाभासा:(92) । तत्र द्रव्यमात्रगाही पर्यायप्रतिक्षेपी द्रव्यार्थिकाभासः । पर्यायमात्रग्राही द्रव्यप्रतिक्षेपी पर्यायार्थिकाभासः। (जैनतर्क भाषा)
अर्थ : अब नयाभासों का आरंभ होता है । उनमें जो केवल द्रव्य का ग्रहण करता है और पर्याय का निषेध करता है, वह द्रव्यार्थिकाभास है । जो केवल पर्याय का ग्रहण करता है और द्रव्य का निषेध करता है, वह पर्यायार्थिकाभास है।
द्रव्य पर्यायों को व्याप्त करते हैं और पर्याय द्रव्यों को । जो वचन केवल सत्ता का प्रतिपादन करता है और द्रव्य, गुण आदि का निषेध करता है वह वचन द्रव्यार्थिकाभास है । विशेषों के बिना सामान्य की सत्ता नहीं होती, विशेषों में सामान्य प्रतीत होता है । इसी प्रकार पर्याय बिना सामान्य नहीं रह सकता । अनेक प्रकार के जितने पुष्प होते हैं उनमें पुष्प सामान्य है । जहाँ पुष्प सामान्य प्रतीत होगा, वहाँ विशेष पुष्य भी आवश्यक रूप से प्रतीत होगा। विशेषों के बिना सामान्य और सामान्य के बिना विशेष आकाश पुष्प के समान असत् है । पर्यायों में अनुगत सामान्य द्रव्य है और अनुगम से रहित पर्याय विशेष है।
द्रव्यार्थिकाभास के तीन भेद हैं - नैगमाभास, संग्रहाभास और व्यवहाराभास । इन में से नैगमाभास का निरूपण करते बताया है कि,
नैगमाभास : धर्मिधर्मादीनामेकान्तिकपार्थक्याभिसन्धि गमाभास:(03), यथा नैयायिक-वैशेषिकदर्शनम् । (जैनतर्कभाषा) 92.नयसामान्यलक्षणमुक्त्वा नयाभासस्य लक्षणं दर्शयितुमाहुः-स्वाभिप्रेतादशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः ।।२।।
योऽभिप्रायविशेष: स्वाभिप्रेतमंशमङ्गीकृत्य, इतरांशानपलपति स नयाभासः ।।७-२।। (प्र.न.तत्त्वा.) 93.धर्मयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धि गमाऽऽभासः ।।७-११।। यथा-आत्मनि सत्त्व-चैतन्यै परस्परमत्यन्तं पृथग्भूते इत्यादिः
७-१२।। (प्र.न.तत्त्वा.) आदिपदेन धर्मिद्वय-धर्मधर्मिद्वययोः संग्रहः । तथा च द्वयोर्धर्मयोः, द्वयोर्धर्मिणोः, धर्म-धर्मिणोर्वा विषये ऐकान्तिकभेदाभिप्रायो यः स नैगमाऽऽभास इत्यर्थः ।।७-११ ।। (प्र.न. तत्त्वा.) एवं 'पर्यायवद् द्रव्यं वस्तु च परस्परमत्यन्तं पृथग्भूते' सुखजीवयोश्च परस्परमात्यन्तिको भेद इत्याकारको योऽभिप्रायविशेष: स नैगमाऽऽभास इत्यर्थः ।।७-१२।।
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