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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४८१ / ११०४ कहने का आशय यह है कि, व्युत्पत्ति द्वारा जो क्रिया प्रतीत होती है, उसके कारण अर्थो में शब्दो का प्रयोग होता हैं। जो क्रिया निमित्त है वह यदि न हो तो अर्थ शब्द का वाच्य नहीं बनता हैं । यानी कि जिन शब्दो का हम जो अर्थ में उपयोग करते है उस अर्थ को वह पदार्थ उस समय यथार्थ अनुभव करता हो तो ही उसके लिए वह शब्द उपयोग करे, ऐसी मान्यता एवंभूत नय की हैं । जैसे कि, इन्द्र शब्द का प्रयोग इन्दन अर्थ में होता है । (ऐश्वर्य का अनुभव) को वह इन्द्र उस समय यथार्थ अनुभव करता हो तो ही इन्द्र के लिए वह शब्द उपयोग में लिया जा सके, ऐसी एवंभूत नय की मान्यता है । जब वह ऐश्वर्य का अनुभव नहीं करता हैं, तब वास्तव में इन्द्र शब्द का प्रयोग उसके लिए होना नहीं चाहिए ऐसी एवंभूत की मान्यता हैं । - 1 एवंभूत नय की मान्यता (81) हैं कि, स्त्री के मस्तक के उपर आरुढ जल से भरा हुआ "घट" ही घट हैं । परन्तु कुम्हार की भठ्ठी में रहा हुआ घट या अपने घर के कोने में पड़ा रहा हुआ घट, वास्तव में घट नहीं है । क्योंकि, उसकी अपनी जलाहरण क्रिया उस समय विद्यमान नहीं हैं । एवंभूत नय की मान्यता को स्पष्ट करते हुए नयकर्णिका ग्रंथ में कहा है कि एकपर्यायाभिधेयमपि वस्तु च मन्यते । कार्यं स्वकीयं कुर्वाणमेवंभूतनयो ध्रुवम् ।।१७।। यदि कार्यमकुर्वाणोऽपीष्यते तत्तया स चेत् । तदा पटेऽपि न घटव्यपदेशः किमिष्यते ।। १८ ।। अर्थ : एक पर्यायवाची शब्द के अभिधेयभूत वस्तु ( भी स्वकीय कार्य जलाहरणादि) करती हैं, तब ही उसे वस्तु के रुप में एवंभूत नय स्वीकार करता है । (यदी वह वस्तु अपनी क्रिया न करती हो, तो उसे वस्तु के रुप में एवंभूत न स्वीकार नहीं करता है ।) उपरांत जो कोई भी वस्तु कार्य करती न हो, तब भी उसे वस्तु के रूप में स्वीकार करनी हो, तो फिर पट में भी घट का व्यपदेश क्यों न किया जा सके ? क्योंकि जैसे पट (जलाहरणादि) कार्य नहीं करता हैं । उसी तरह से कोने में पड़ा रहा हुआ घट भी जलाहरणादि क्रिया नहीं करता हैं । इसलिए यदि क्रिया न करते हुए घट का भी घट के रूप में व्यपदेश होता है, तो क्रिया रहित पट का भी घट के रूप में व्यपदेश होना चाहिए ? वह क्यों न हो ! इसलिए यह फलित होता है कि, एवंभूत नय के मत में क्रियायुक्त वस्तु ही " वस्तु" के रुप में हैं । क्रियारहित वस्तु, 'वस्तु' के रूप में नहीं हैं । नयरहस्य ग्रंथ में एवंभूत नय का स्वरूप बताते हुए कहा है कि व्यञ्जनार्थविशेषान्वेषणपरोऽध्यवसायविशेषः एवम्भूतः 1 (82) . व्यंजन = घटादि वाचक शब्द और अर्थ = घटपद से वाच्य ऐसी घटनक्रियाविशिष्ट वस्तु, यह व्यंजन- अर्थ विशेष की अन्वेषणा में तत्पर अध्यवसाय विशेष एवंभूत नय हैं । कहने का आशय यह है कि, "व्यंजन में अर्थकृत विशेष" और " अर्थ में व्यंजन विशेष " कृत अपेक्षा जो अध्यवसाय विशेष में हो, उस अध्यवसाय विशेष को एवंभूतनय कहा जाता हैं . Jain Education International - 81.पदार्थव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाकालव्यापकपदार्थसत्ताभ्युपगमपर एवम्भूतः । आह च भाष्यकार : - एवं जह सद्दत्थो संतो भूओ तह तयन्त्रहाभूओ । तेणेवंभूयनओ सद्दत्थपरो विसेसेणं ।। २२५१ ।। अयं हि योषिन्मस्तकारुढं जलाहरणादिक्रियानिमित्तं घटमानमेव घटं मन्यते, न तु स्वगृहकोणादिव्यवस्थितमचेष्टनादित्येवं विशेषतः शब्दार्थतत्परोऽयमिति भाव: । (नयरहस्य ) 82. वंजण- अत्थतदुभयं एवंभूओ विसेसइ । ( अनुयोगद्वार - १५२ निर्युक्ति - २१८५) व्यञ्जनार्थयोरेवंभूत इति । (तत्त्वार्थभाष्यम्) For Personal & Private Use Only इन दोनों की www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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