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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद को समजाते हैं । परन्तु (जो भविष्य में जिन होनेवाले हैं, उसे द्रव्यजिन कहा जाता हैं, प्रतिमा या चित्र पट में जिस जिन की स्थापना की हैं, उसे स्थापना जिन कहा जाता हैं और कोई वस्तु का “जिन " ऐसा नाम दिया हो उसे नामजिन कहा जाता हैं ।) "जिन" शब्द द्रव्यजिन, स्थापना जिन या नामजिन को बताता नहीं हैं ।
शब्दनय की मात्र भावनिक्षेपा की स्वीकृति को दृढ करते हुए अनेकांत व्यवस्था में (विशेषावश्यक भाष्य की साक्षी देकर) कहा है कि, नामादयो न कुंभा तक्कज्जाकरणओ पडाइव्व । पञ्चक्खविरोहाओ तल्लिंगाभावओ वा वि ।। विशे. भा. २२२९ ।। नामघट, द्रव्यघट या स्थापना घट नहीं हैं । (विद्यमान नहीं हैं) क्योंकि घट का जो जलाहरणादि कार्य है वह नामादि घट नहीं करते हैं । जैसे पट जलाहरणादि कार्य करता देखने को मिलता न होने से उसका " घट" शब्द
व्यपदेश नहीं होता हैं । वैसे नामादि घट भी वह विवक्षित कार्य करते न होने से घट ही नहीं है । तदुपरांत नामादि घट को घट के रूप में मानने से प्रत्यक्ष से विरोध भी आता हैं और जलाहरणादि लिंग भी नहीं दिखाई देता हैं । अर्थात् नामघट, स्थापना घट और द्रव्यघट प्र से अघट रुप से दिखाई देता हैं, फिर भी उसको घटरूप में व्यपदेश करना वह प्रत्यक्ष विरोध हैं । तथा घट का जा जलाहरणादि लिंग हैं, वह लिंग भी नामघटादि में देखने को नहीं मिलता हैं । इसलिए अनुमान से भी विरोध आता हैं । इसलिए वे नामादि घट 'घट' ऐसे व्यपदेश के भाजन किस तरह हो सकते हैं ? (73)
प्रश्न : “घट” पद से नामादि घट की उपस्थिति अस्खलित रूप से होती दिखाई देती हैं । इसलिए नामादि घट में 'घट' पद की शक्ति है । इसलिए 'घट' पद से केवल भावघट ही ग्रहण हो और नामादि घट ग्रहण न हो, ऐसा क्यों ?
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उत्तर : अंतरंग प्रत्यासत्ति से 'घट' पद की शक्ति भावघट में ही स्वीकार की गई है । नामादि घट में नहीं । इसलिए घटपद से भावघट का ही स्वीकार करना चाहिए ऐसा शब्दनय का अभिप्राय हैं । (74)
सारांश में, शब्दन को जैसे प्रकार का ध्वनि (शब्द प्रयोग) हो वैसे प्रकार का ही अर्थ इस शब्द से इष्ट है । अन्यलिंगादि से युक्त शब्दप्रयोग से अन्यलिंगादि से युक्त अर्थ की प्रतीति शब्दनय मानता नहीं हैं ( (75) (६) समभिरुढ नय : इस नय का स्वरूप बताते हुए जैनतर्कभाषा में कहा हैं कि,
पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थं समभिरोहन् समभिरुढ : (76) शब्दनयो हि पर्यायभेदेऽप्यर्थाभेदमभिप्रैति, शब्द के अर्थ का शक्तिग्रह आठ प्रकार से होता हैं । न्यायसिद्धांत मुक्तावली में शक्तिग्रह के आठ प्रकार बताते हुए कहा है कि, शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धा: ।। - शब्द
अर्थ का शक्तिग्रह (१) व्याकरण, (२) उपमान, (३) कोश, (४) आप्तवाक्य, (५) व्यवहार, (६) वाक्यशेष, (७) विवृत्ति (टीका) और (८) प्रसिद्धपदसन्निधान : वे आठ प्रकार से होता हैं । 73. नाम-स्थापना द्रव्यरुपाः कुम्भा न भवन्ति, जलाहरणादितत्कार्याकरणात्, पटादिवत्, तथा प्रत्यक्षविरोधात् तल्लिङ्गादर्शनाच्च ।। ( अनेकांतव्यवस्था) 74. घटपदान्नामादि घटोपस्थितेरस्खलिततया दर्शनात् तत्र तत्पदशक्तेरव्याहतत्वात् स्वारसिकघटपदलक्षणो व्यपदेशस्तु न विरुध्यते इति चेत् ? न, अन्तरङ्गप्रत्यासत्या भावघट एव घटपदशक्तेरभ्युपगमात्, नामादिषु तत्पदप्रयोगस्यास्वारसिकत्वादिति दिग् ( अनेकांतव्यवस्था) 75. यादृशो ध्वनिस्तादृश एवार्थोऽस्येष्ट इति । अन्यलिङ्गवृत्तेस्तु शब्दस्य नान्यलिङ्गवाच्यमिच्छत्यसौ । नाप्यन्यवचनवृत्तेः शब्दस्य अन्यवचनवाच्यं वस्त्वभिधेयमिच्छत्यसौ इति भावः (अने.व्य.) 76. समभिरूढः ।।७-३६ । । इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छक्रः पूर्दारणात् पुरन्दर इत्यादिषु यथा ।।७ - ३७।। (प्र.न. तत्त्वा.) पर्यायशब्देषु इन्द्र- पुरन्दरादिशब्देषु, निरुक्तिभेदेन-निर्वचनभेदेन, भिन्नमर्थं समभिरोहन्-अभ्युपगच्छन् समभिरुढः ।। ३६ ।। अयमर्थः यद्यपि इन्द्र- शक्रादयः शब्दा इन्द्रत्व- शक्रत्वादिपर्यायविशिष्टस्यार्थस्य वाचकाः, न केवलं पर्यायस्य, तथापि समभिरूढनयवादि गौणत्वाद् द्रव्यवाचकत्वमुपेक्ष्य प्रधानत्वात् पर्यायवाचकत्वमेवाङ्गीकुर्वन् ‘इन्द्रादयः शब्दाः प्रतिपर्यायबोधकत्वाद्, भिन्नभिन्नार्थवाचका:' इति मन्यते । शब्दनयो हि नानापर्यायभेदेऽप्यर्थाभेदमेवाभिप्रैति, समभिरूढस्तु पर्यायभेदे अर्थभेदं प्रतिपद्यते इति विशेषः ।। ३७ ।।
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