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________________ ४७० / १०९३ षड् समु. भाग-२, परिशिष्ट - ३, जैनदर्शन में नयवाद अतीतकालीन है, उससे भी किसी भी प्रकार का व्यवहार (वर्तमान में ) नहीं होता है, तो फिर उसे क्यों वस्तु के रूप में स्वीकार करते हो ? इसलिए जो वस्तु का वर्तमान के व्यवहार में उपयोग नहीं हो सकता हैं, ऐसी अनागत-अतीतपरकीय वस्तु को 'वस्तुरूप में नहीं माननी चाहिए, ऐसा ऋजुसूत्र नय का मत हैं । इसी बात को ज्यादा स्पष्ट करके (61) अनेकांत व्यवस्था और नयोपदेशग्रंथ में बताया हैं । प्रश्न : पर्याय द्रव्य के बिना नहीं हो सकता हैं, फिर भी ऋजुसूत्र नय द्रव्य की उपेक्षा करके पर्याय की प्रधानता से विधान करता हैं, उसमें स्पष्ट रूप में व्यवहार का भंग होता हो, ऐसा नहीं लगता ? उत्तर : किसी प्रकार से एक को प्रधान बनाकर अन्य को गौण करने में लोक व्यवहार का किसी प्रकार से लोप होता नहीं हैं। नय की प्रवृत्ति ही इस तरह से चलती हैं । लोक व्यवहार तो सकल नय के समुह से साध्य हैं । इसी बात खुलासा करते हुए (62) नयप्रकाशस्तव में कहा है कि, "ऋजुसूत्र नय की पेशकश में पर्याय के अधिकरण भूत द्रव्य विद्यमान होने पर भी उसे गौण किया है । अनागत और अतीत क्रमशः अनुत्पन्न और विनष्ट होने से ( वर्तमान में उसका ) संभव नहीं हैं और फिर भी इस प्रकार से मानने से लोकव्यवहार के लोप का प्रसंग भी नहीं आता हैं । क्योंकि ऋजुसूत्र नय वर्तमानकालीन और स्वकीय विषयमात्र की प्ररूपणा में तत्पर अभिप्राय विशेष है और लोक व्यवहार तो सकलनय के समूह से साध्य हैं । " विशेष में ऋजुसूत्रनय के मतानुसार वर्तमान में ज्ञान के उपयोग में वर्तित जीव ही ज्ञानी है; दर्शन के उपयोग में वर्तित जीव दर्शनी है । कषाय में उपयुक्त जीव ही काषायी है और समताभाव में उपयुक्त जीव ही सामायिकी है । ज्ञान हो किन्तु उसके उपयोग में न हो तो ऋजुसूत्रनय उसे ज्ञानी नहीं मानेगा । सामायिक क्रिया करता हो, परन्तु समताभाव में उपयुक्त नहीं हो तो ऋजुसूत्रनय उसे सामायिकी नहीं मानता । 1 प्रश्न : ऋजुसूत्रनय द्रव्यार्थिक है या पर्यायार्थिक नय है ? ऋजुसूत्रनय का अंतर्भाव कोई पू. आचार्य भगवंत द्रव्यार्थिक नय में करते हैं और कोई पू. आचार्य भगवंत उसका अन्तर्भाव पर्यायार्थिक नय में करते हैं, तो दोनों पक्ष की मान्यता को किस तरह से संगत करेंगे ? उत्तर : नैगम, संग्रह और व्यवहार: ये तीन नय द्रव्यार्थिक हैं और शब्द - समभिरूढ और एवंभूत : ये तीन नय पर्यायार्थिक हैं । इस विषय में कोई मतभेद नहीं हैं । जो मतभेद हैं, वह मात्र ऋजुसूत्र नय के विषय में हैं । उस मतभेद को दूर करके दोनों के अभिप्रायों का सुंदर समन्वय न्यायाचार्य - न्यायविशारद पू. उपाध्यायजी महाराजा ने द्रव्य-गुण- पर्याय के रास में कर दिया है और वह भी गुर्जरभाषा में हैं । हम उसके आधार पर पहेले के प्रश्न का उत्त विस्तार से सोचेंगे। रास की आठवी ढाल में कहा हैं कि, 61. ऋजुत्वं चैतदभ्युपगतवस्तुनोऽवर्तमानपरकीर्यानषेधेन प्रत्युत्पन्नत्वम् । अतीतमनागतं परकीयं च वस्त्वेतन्मते वक्रं प्रयोजनाकर्तृत्वेन परधनवत् तस्यासत्त्वात्, स्वार्थक्रियाकारित्वस्यैव स्वसत्तालक्षणत्वात् । अत एव व्यवहारनयवादिनं प्रति अयमेव पर्यनुयुङ्क्ते 'यदि व्यवहारानुपयोगादनुपलम्भाच्च सङ्ग्रहनयसम्मत्तं सामान्यं त्वं नाभ्युपगच्छसि तदा तत एव हेतुद्वयात् गतमेष्यत् परकीयं च वस्तु नाभ्युपगमः । न हि तैः कश्चिद् व्यवहारः क्रियते उपलब्धिविषयीभूयते वा । वासनाविशेषजनितो व्यवहारस्तु सामान्येऽप्यतिप्रसज्यत इति यत् स्वकीयं साम्प्रतकालीनं च तद्वस्तु (अनेकांतव्यवस्था) । 62. द्रव्यस्य सतोऽप्यनर्पणात्, अतीतानागतयोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेन असम्भवात् । न चैवं लोकव्यवहारविलोपप्रसङ्गः, नयस्यास्यैवं विषयमात्रप्ररूपणात्, लोकव्यवहारस्तु सकलनयसमूहसाध्य इति ।। ( नयप्रकाशस्तव ) | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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