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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद विशेषात्मक पदार्थ को ही मानता । (क्योंकि जगत का व्यवहार विशेष से ही होता हैं ।) व्यवहारनय विशेष भिन्न सामान्य को खरविषाण की भांति असत् मानता हैं 1
"वनस्पति को ग्रहण करो" ऐसा कहने से कोई भी व्यक्ति वनस्पति सामान्य को ग्रहण नहीं करता हैं । परन्तु आम आदि विशेष वनस्पति को (वनस्पति विशेष को) ही ग्रहण करता हैं । इसलिए आम आदि वनस्पति विशेष के बिना जगत का व्यवहार चलता नहीं है । इसलिए वह वनस्पति विशेष आम्रादि के बिना 'सामान्य' निरर्थक हैं । इस जगत में चलते (लोक प्रयोजनभूत) कोई भी व्रणपिंडी, पादलेपादि व्यवहारो में विशेषो से ही कार्य सिद्ध होता हैं अर्थात् विशेष ही उपयोग में लिया जाता हैं । उसके लिए सामान्य में कोई प्रवृत्ति नहीं करता हैं ( (50)
व्यवहारनय विशेष को प्रधान बनाकर सामान्य को गौण बनाता हैं, उसमें उन्होंने जो युक्तियाँ दी है, वह अनुयोगद्वार सूत्र - १३७ की विवृत्ति से और विशेषावश्यक भाष्य २२२०-२२२१ से जान लेना । सारांश में व्यवहारनय की मान्यता अनुसार विशेषो से ही जगत का सभी व्यवहार चलता होने से वही परमार्थभूत हैं और सामान्य व्यवहारोपयोगी न होने से अपारमार्थिक हैं । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के भाष्य में व्यवहारनय के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए बताया हैं कि, “लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः । । ( 51 )
लौकिक समान, उपचारप्राय और विस्तृत अर्थवाला व्यवहारनय हैं । लौकिक सम अर्थात् लौकिक जो पुरुष हैं, उनके समान व्यवहारनय हैं। यानी कि जैसे लोक में वर्त्तित पुरुष घटादि विशेषो के द्वारा ही व्यवहार करते हैं, वैसे
व्यवहारनय भी विशेष से व्यवहार करता । तदुपरांत, जैसे लोक में पाँच वर्ण से युक्त भी भ्रमर को कृष्ण वर्णवाला अंगीकार करते हैं अर्थात् विशेष को प्रधान बनाकर जैसे भ्रमर को कृष्ण वर्णवाला स्वीकार करते हैं, वैसे व्यवहारनय भी विशेष को प्रधान बनाकर वस्तु को ग्रहण करनेवाला हैं । उपरांत, व्यवहारनय उपचार प्राय: हैं । अन्यत्र प्रसिद्ध अर्थ का अन्य स्थान पर आरोप करना उसे उपचार कहा जाता हैं। जैसे कि, मटके में रहा हुआ पानी ज़रता हो ( बहता हो) तो मटका ज़रता है तथा पर्वत के उपर के तृणादि जलते हो, तो पर्वत जलता है, ऐसे प्रकार का उपचार होता हैं, ऐसे उपचार की भाषा बोलनेवाला व्यवहार नय हैं । व्यवहारनय विस्तृत अर्थवाला हैं अर्थात् (अनेक विशेष ज्ञेय होने से) अनेक विशेष ऐसे ज्ञेय अर्थो को ग्रहण करने के अध्यवसाय वाला व्यवहारनय हैं । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने अनेकांत व्यवस्था और नयोपदेश में भी पूर्वोक्त बातो की स्पष्टता की है।(52) व्यवहारनय के भी चार निक्षेपा होते हैं | (53)
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50. वनस्पतिं गृहाणेति प्रोक्ते गृह्णाति कोऽपि किम् । विना विशेषान्नाम्रादींस्तन्निरर्थकमेव तत् ।। व्रणपिण्डीपादलेपादिके लोकप्रयोजने । उपयोगो विशेषैः स्यात्सामान्ये न हि कर्हिचित् ।। 51. लौकिकेत्यादि । लोके मनुष्यादिभावे विदिताः लौकिकाः पुरुषास्ते समः - तुल्यः, यथा लौकिका विशेषैरेव घटादिभिर्व्यवहरन्ति तथाऽयमपीत्यतस्तत्समः, उपचारप्रायः इति । उपचारो नामान्यत्र सिद्धस्यार्थस्यान्यत्राध्यारोपो यः यथा कुण्डिका स्रवति, पन्था गच्छति, उदके कुण्डिकास्थे स्रवति, कुण्डिका स्रवतीत्युच्यते, पुरुषे च गच्छति पन्था गच्छतीति । एवमुपचारप्राय उपचारबहुल इत्यर्थः । विस्तृतो- विस्तीर्णोऽनेकोऽर्थो ज्ञेयो यस्य स विस्तृतार्थः अध्यवसायविशेषो व्यवहार इति निगद्यते (तत्त्वार्थाधिगम सूत्र - श्री सिद्धसेनगणि टीका) व्यवहारं लक्षयति लौकिकेत्यादि । लोके मनुष्यलोकादौ विदिता सत्या लौकिका ये पुरुषास्तैः समस्तत्तुल्यः यथा लौकिका विशेषैरेव घटादिभिर्व्यवहरन्ति तथाऽयमपीत्यतस्तत्समः । उपचारो नामाऽन्यत्रसिद्धस्यार्थस्यान्यत्रारोपः, यथा कुण्डिकास्थे उदके स्रवति कुण्डिका स्रवतीति, पुरुषे च गच्छति पन्था गच्छति, गिरितृणादौ दह्यमाने गिरिर्दह्यते इत्यादौ तत्प्रायस्तद्बहुलः । विस्तृतो विस्तीर्णोऽनेकेषां विशेषाणां ज्ञेयत्वादर्थो विषयो यस्य स तथा, विस्तीर्णोऽनेकेषां एतादृशोऽध्यवसायविशेषो व्यवहार इति निगद्यते (तत्त्वार्थाधिगमसूत्र महोपाध्यायश्रीजी रचित टीका) लौकिकेति । विशेषप्रतिपादनपरमेतत् । यथा हि लोको निश्चयतः पञ्चवर्णेऽपि भ्रमरे कृष्णवर्णत्वमङ्गीकरोति तथायमपीति । लौकिकसम इति । कुण्डिका स्रवति, पन्थाः गच्छतीत्यादौ बाहुल्येन गौणप्रयोगाद् उपचारप्रायः विशेषप्रधानत्वाच्च विस्तृतार्थो इति । (नयरहस्यप्रकरणम्)
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