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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद नयचक्रसार(43) ग्रंथ में संग्रहनय का स्वरूप और उसके दो भेद प्रभेद बताते हुए कहा है कि " सर्व पदार्थों में रही हुई 'सत्ता' के ग्राहक अध्यवसाय - विशेष को संग्रहनय कहा जाता हैं । उस संग्रहनय के दो प्रकार हैं । (१) सामान्य संग्रह और (२) विशेष संग्रह । सामान्य संग्रह भी दो प्रकार का हैं । (१) मूल से और (२) उत्तर से मूल से अस्तित्वादि आदि भेद से छः प्रकार का है और उत्तर से जाति और समुदाय भेदरूप है। (यहाँ पहले बताये हुए अस्तित्वादि धर्मों में से छः भेदो को लेकर जिस में अस्तित्वादि धर्म हो, उन द्रव्यों को एक बताना, वह इस प्रकार का उद्देश्य हैं । गोत्व जाति से सभी गायो को एक मानना, घटत्व जाति से सभी घटो को एक मानना, वनस्पतित्व जाति से सभी वनस्पति को एक मानना, वह उत्तरतः जातिरूप सामान्य संग्रह की दृष्टि हैं । आम के पेडोवाले वन में 'सहकार वन' ओर मनुष्यों के समूह में "मनुष्यवृंद" ऐसा जो व्यवहार होता है, वह उत्तरतः समुदायरूप सामान्य संग्रहनय की दृष्टि हैं ।
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अथवा द्रव्यत्वेन सभी द्रव्यो को एक मानना वह सामान्यसंग्रह नय और छः द्रव्यो में से जीव, कि जो अनेक हैं, वो में रहे हुए जीवत्व अपेक्षा से सभी जीवो को एक मानना वह विशेष संग्रहनय हैं ।
सारांश में... सामान्य संग्रह नय की दृष्टि से तमाम द्रव्य एक हैं और विशेष संग्रहनय की दृष्टि से ( जीव अन्य द्रव्यो से भिन्न है और फिर भी) तमाम जीव एक हैं।
सारांश में... संग्रहनय संग्रह करने में तत्पर होता हैं । जैसे कि, 'वनस्पति' कहने से उसमें; आम, नीम, बरगद, बबूल, गुलाब आदि तमाम वनस्पतियों का संग्रह होता हैं । संग्रहनय उस आम आदि सभी को 'वनस्पति' के रूप में ही मानता हैं ।
अनुयोगद्वार सूत्र और नयरहस्य में संग्रहनय के( 44 ) दो प्रकार इस तरह से बताये हैं... सामान्य (सत्ता) के अभिमुख होकर वस्तु को ग्रहण करनेवाले वस्तु का प्रतिपादन करने की इच्छा रखनेवाले अभिप्राय को सामान्य परसंग्रह नय कहा जाता हैं और विवक्षित एक जाति के उपराग से वस्तु का प्रतिपादन करना चाहते अभिप्राय को विशेष (अपर) संग्रहनय कहा जाता है । इसी बात को विशेषावश्यक भाष्य की गाथाओं के अनुसंधानपूर्वक नयचक्रसार में भी सुन्दर तरह से स्पष्ट की है । (45) नयोपदेश ग्रंथ में भी इसके विषय में बहोत स्पष्टतायें की हैं । विस्तार भय
43. सामान्य वस्तुसत्तासंग्राहकः संग्रहः । स द्विविधः सामान्यसंग्रहो विशेषसंग्रह | सामान्यसंग्रहो द्विविधः मूलत उत्तरतश्च । मूलतोऽस्तित्त्वत्वादिभेदतः षड्विधः, उत्तरतो जातिसमुदायभेदरूपः । जातितः गवि गोत्वं घटे घटत्वं वनस्पती वनस्पतित्वम् । समुदायतो सहकारात्मके बने सहकारवनं, मनुष्यसमुहे मनुष्यवृंदं इत्यादि समुदायरूपः । अथवा द्रव्यमिति सामान्य संग्रहः । जीव इति विशेषसंग्रहः । 44. 'संगहिय पिंडियत्थं संगहवयणं समासओ विति' इति सूत्रम् (अनु. १५२) अत्र संगृहीतं सामान्याभिमुखग्रहणगृही पिण्डितं च विवक्षितैकजात्युपरागेन, प्रतिपिपादयिषितमित्यर्थः । संगृहीतं महासामान्यं, पिण्डितं तुं सामान्यविशेषं इति वार्थः ।। 45. सामान्यवस्तुसत्तासङ्ग्राहरू सङ्ग्रहः । स द्विविधः सामान्यसङ्ग्रहो विशेषसङ्ग्रहश्च सामान्यसङ्ग्रहो द्विविधः मूलत उत्तरतश्च । मूलतोऽस्तित्वादिभेदतः षड्विधः, उत्तरतो जातिसमुदायभेदरूपः । जातितः गवि गोत्वं, घटे घटत्वं, वनस्पतौ वनस्पतित्वं । समुदायतो सहकारात्मके वने सहकारवनं, मनुष्यसमूहे मनुष्यवृंद, इत्यादि समुदायरूपः । अथवा द्रव्यमिति सामान्यसङ्ग्रहः, जीव इति विशेषसङ्ग्रहः । तथा विशेषावश्यके "संगहणं संगिण्हड़ संगिज्झते व तेण जं भेवा तो संगहोत्ति संगहियपिडियत्थं वओ जस्स" ।। (विशे. २२०३ ) संग्रहणं सामान्यरूपतया सर्ववस्तुनामाक्रोडनं सङ्ग्रहः । अथवा सामान्यरूपतया सर्वं गृह्णातीति सङ्ग्रहः । अथवा सर्वेऽपि भेदाः सामान्यरूपतया सगृह्यन्ते अनेनेति सङ्ग्रहः । अथवा सगृहीतं पिण्डितं तदेवार्थोऽभिधेयं यस्य तत् सङ्गृहीतपिण्डिताचं एवंभूतं वचो यस्य सङ्ग्रहस्येति । तत्र सगृहीतपिण्डितं तत् किमुच्यते इत्याह संगहीयमागहीवं संपिंडियमेगजाइमाणीयं । संगहीयमणुगमो वा वइरेगो पिंडियं भणियं ।। (विशे. २२०४) सामान्याभिमुख्येन ग्रहणं संगृहीतसङ्ग्रह
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