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________________ २२/६४५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन जैसे कि, जिस प्रकार के धर्मवाली अग्नि से जिस प्रकार के धूम की उत्पत्ति प्रमाणो के द्वारा प्रसिद्ध हो, स्वीकार की गई हुई हो, वैसे प्रकार के धूम से ही वैसे प्रकार के ही अग्नि का अनुमान करना उचित है। परन्तु उससे विपरीत नहीं। - इसलिए दृष्टान्तानुसार शरीरी और असर्वज्ञ कर्ता की सिद्धि होने के कारण कार्यत्व हेतु विरुद्ध है। इससे साध्य और साधन में विशेषरुप से व्याप्तिग्रहण किया जाये तो सभी अनुमान के उच्छेद की आपत्ति आयेगी। ऐसी आपकी (पूर्वकी) बातका भी निराकरण होता है। हमने सामान्य नियम बताया कि- जिस कारण से जिस प्रकार का कार्य दिखाई दे, उससे वैसे प्रकार के पदार्थ का अनुमान होता है। उसमें कोई दूषण नहीं है। वैसे ही बीज बोये बिना भी ऊगकर निकलता हुआ तृण, जंगली वृक्ष, पहाडो के शिखर इत्यादि अवयववाले होने के कारण कार्य अवश्य है। परन्तु उसका कोई बुद्धिमान कर्ता नहीं है। इसलिए कार्यत्व हेतु व्यभिचारि-अनैकान्तिक भी है। द्विविधानि कार्याण्युपलभ्यन्ते, कानिचिष्टुद्धिमत्पूर्वकाणि यथा घटादीनि, कानिचित्तु तद्विपरीतानि यथाऽकृष्टप्रभवतृणादीनि । तेषां पक्षीकरणादव्यभिचारे, स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवदित्यादेरपि गमकत्वप्रसङ्गान्न कश्चिद्धेतुर्व्यभिचारी स्यात्, व्यभिचारविषयस्य सर्वत्रापि पक्षीकर्तुं शक्यत्वात् । ईश्वरबुद्धयादिभिश्च व्यभिचारः, तेषां कार्यत्वे सत्यपि समवायिकारणादीश्वराद्विभिन्नबुद्धिमत्पूर्वकत्वाभावात् । तदभ्युपगमे चानवस्था । तथा कालात्ययापदिष्टश्चायं, अकृष्टप्रभ-वाकुरादौ कञभावस्याध्यक्षेणाध्यवसायात्, अग्नेरनुष्णत्वे साध्ये द्रव्यत्ववत् । ननु तत्राप्यदृश्य ईश्वर एव कर्तेति चेत्, तन्न । यतस्तत्र तत्सद्भावोऽस्मादेवान्यतो वा प्रमाणात्सिध्येत् । प्रथमपक्षे चक्रकम् । अतो हि तत्सद्भावे सिद्धेऽस्यादृश्यत्वेनानु-पलम्भसिद्धिः, तत्सिद्धौ च कालात्ययापदिष्टत्वाभावः, ततश्चास्मात्तत्सद्भावसिद्धिरिति । द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः, तत्सद्भावावेदकस्य प्रमाणान्तरस्यैवाभावात् । E-20अस्तु वा तत्र तत्सद्भावः, तथाप्यस्यादृष्टत्वे शरीराभावः कारणं, विद्यादिप्रभावः, जातिविशेषो वा ? । प्रथमपक्षे कर्तृत्वानुपपत्तिः अशरीरत्वात् -21, मुक्तात्मवत् । ननु शरीराभावेऽपि ज्ञानेच्छाप्रयत्नाश्रयत्वेन शरीरकरणे कर्तृत्वमुपपद्यत इत्यप्यसमीक्षिताभिधानं, शरीरसंबन्धेनैव तत्प्रेरणोपपत्तेः, शरीराभावे मुक्तात्मवत्तदसंभवात् । शरीराभावे च ज्ञानाद्याश्रयत्वमप्यसंभाव्यं, तदुत्पत्तावस्य निमित्तकारणत्वात्, अन्यथा मुक्तात्मनोऽपि तदुत्पत्तिप्रसक्तेः । विद्यादिप्रभावस्य चादृश्यत्वहेतुत्वे कदाचिदसौ दृश्यते । न खलु विद्याभृतां शाश्वतिकमदृश्यत्वं दृश्यते, पिशाचादिवत् । जातिविशेषोऽपि नादृश्यत्वे (E-20-21)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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